शुक्रवार, 13 दिसंबर 2019

टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं !

फिर कुछ बातें याद आती हैं
फिर कुछ लम्हे तड़पाते हैं !
कोई खुदा-सा हो जाता है
और हम सजदा कर जाते हैं।

रिश्तों के गहरे दरिया में
बहते हैं टूटी कश्ती से !
लहरों के संग बहते-बहते
टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं ।

सर्द है रुत, है सर्द हवा
और सर्द सुलूक तुम्हारा है !
बर्फ से ठंडे अल्फाजों से,
अपने दिल को बहलाते हैं।

एक जुनूनी बादल की,
जिद पर मौसम फिर भीगेगा !
फिर गीले होंगे खत मेरे
पंछी जिनको ले जाते हैं।

छोड़ भी देते दुनिया, पर
इस दुनिया में ही तुम भी हो !
ऐसा ही इक गीत था जो
तुमने गाया, अब हम गाते हैं।








बुधवार, 4 दिसंबर 2019

अपने-अपने दर्द

अपने-अपने दर्द सभी को खुद ही सहने पड़ते हैं
दर्द छुपाने, मनगढ़ंत कुछ किस्से कहने पड़ते हैं।
किसको फुर्सत, कौन यहाँ तेरे गम का साझी होगा ?
पार वही उतरेगा जो खुद ही अपना माझी होगा।
उलझे रिश्तों के धागे पल-पल सुलझाने पड़ते हैं
बुझे चेतना के अंगारे फिर सुलगाने पड़ते हैं ।।

शाम ढले सागर में नैया किसे खोजने जाती है,
बियावान में दर्दभरी धुन किसके गीत सुनाती है ?
अट्टहास करता है कोई दीवाना मयखाने में,
मध्य निशा में गा उठता है, इक पागल वीराने में,
बंदी अहसासों के सपने कौन चुरा ले जाता है ?
शब्दों के शिल्पी चोरी से किसकी मूरत गढ़ते हैं ?

जिन आँखों को मस्ती के सागर छलकाते देखा हो,
जिन ओठों को बस तुमने हँसते गाते ही देखा हो,
एक बार उन ओठों के कंपन में छुपा रूदन देखो
और कभी उन आँखों में मेघों से भरा गगन देखो।
खामोशी के परदे में जब जख्म छुपाने पड़ते हैं 
तब ही मन बहलाने को, ये गीत बनाने पड़ते हैं।।



सोमवार, 4 नवंबर 2019

चिड़िया बनकर उड़ जाते हैं....

कुछ इकतरफा रिश्ते बनते हैं
किसी नदी के एक किनारे, चलते-चलते
एक दिशा में ही, सूरज के उगते-उगते
एक तरफ ही रोज, चाँद के ढलते-ढलते
ये इकतरफा रिश्ते भी बन जाते हैं.....

तन्हा-तन्हा से लम्हे भी कट जाते हैं
इंतजार में थमते, बहते, तरसे-तरसे
नयन भरे जैसे बदरा अब बरसे, बरसे 
कोई गुजरा अभी इधर से, क्या तुम ही थे ?
यही सोचते तन्हा लम्हे कट जाते हैं....

अल्फ़ाज़ जुबां तक आते आते रुक जाते हैं
कलम उठाकर उनको लिखना भी चाहूँ,
तो चिड़िया बनकर उड़ जाते हैं
इधर उधर को मुड़ जाते हैं, छुप जाते हैं
अल्फ़ाज़ जुबां तक आते-आते रुक जाते हैं.....

कोई बेगाना जब अपना-सा लगता है,
मन करता है, काटूँ अपने दिल से टुकड़े,
और रोप दूँ उसके दिल में, 
ज्यों गुलाब की कलमें बोती हूँ बारिश में !
कोई बेगाना जब अपना सा लगता है....


शुक्रवार, 25 अक्टूबर 2019

आती रहेगी दीवाली, जाती रहेगी दीवाली.....

दीपावली जब से नजदीक आती जा रही है, मन अजीब अजीब सा हो रहा है। मुखरित मौन पर व्याकुलभाई की टिप्पणी पढ़ी - "विचार करें अब दीवारों पर रंग कितने घरों में खिलखिलाते हैं। रंगाई-पुताई करने वाले लोगों से भी जरा उनका हाल इस पर्व पर पूछ लें।"
मन सोचने को इसी टिप्पणी से बाध्य हुआ, ऐसा नहीं है। ना जाने कब से ये विचार मन में घुमड़ रहे हैं। 

रोज स्कूल आते जाते समय राह में बनती इमारतों/ घरों का काम करते मजदूर नजर आते हैं। ईंट रेत गारा ढोकर अपने परिवार के लिए दो वक्त की रोटी का इंतजाम करनेवाले मजदूर मजदूरनियों को देखकर यही विचार आता है - कैसी होती होगी इनकी दीवाली ?


रास्तों के किनारे, कचरे से उफनती कचरा पेटियों के आसपास कूड़े के ढ़ेर के ढ़ेर लगे हैं। आखिर इतना कूड़ा कहाँ से आ रहा है ? सालभर का एक ही साथ निकाल रहे हैं क्या लोग ? कूड़े के ढेर से कबाड़ बीनते बच्चों , कबाड़ के टुकड़ों के लिए लड़ती औरतों और उस दुर्गंध को झेलकर कमाए गए चार पैसों पर गिद्ध की सी नजर गड़ाए शराबी मर्दों को पता भी है कि दीवाली आ रही है?

मेरी कामवाली वनिता ज्यादा कमाई की चाह में लोगों के घर दीपावली की साफ सफाई का अतिरिक्त काम कर रही है पिछले पाँच दिन से। नौ घरों का नियमित काम तो है ही। मेरे घर तक पहुँचते-पहुँचते निढाल हो जाती है। मैंने अपने घर की सफाई का काम खुद किया तो बुरा मान रही है। अपने घर को सजाना छोड़ दूसरों के घर सजा सँवार रही है। मैं कहती हूँ - बीमार पड़ेगी तू। वो कहती है कि मजबूरी है दीदी, पैसों की जरूरत है। उसके लिए दीवाली का अर्थ इतना ही है - कुछ ज्यादा कमाई का मौका।


इलेक्शन में सेना के जवानों की ड्यूटी लगी है। बूथ के बाहर हाथ में राइफल सँभाले मुस्तैदी से बैठे उस जवान को देखकर मन भर आया है। होठों पर मूँछों की हलकी सी कोर, नाटा कद, छोटी छोटी आँखें, उम्र लगभग वही, जिसे हम खेलने खाने की उम्र कहते हैं। मेरे बेटे से अधिक उम्र नहीं होगी उसकी। मन किया कि उससे बात करूँ पर सामने से जेठजी और अन्य बुजुर्ग आते देख आगे बढ़ना पड़ा। ये बच्चा ( हाँ, वह भी तो किसी का बच्चा ही है ) दीपावली में क्या अपने परिवार के पास जा सकेगा ? कैसी होगी उसकी और उसके परिवार की दीवाली ? गाँवों में घर परिवार छोड़कर रोजीरोटी की तलाश में शहर में फँसे लाखों मेहनतकश लोगों की भी तो उनका परिवार राह जोहता होगा ना दीवाली पर ? 

बाढ़ में प्रभावित हुए लाखों परिवार, वे किसान जिनकी कड़ी मेहनत से उगी फसलें बेमौसम की बरसात से बर्बाद हो गई हैं, वे छोटे व्यापारी और दुकानदार जिनका व्यापार मंदी की मार, बढ़ती हुई ऑनलाइन खरीददारी और मॉल कल्चर की वजह से चारों खाने चित पड़ा है, वे बेघर जिनके घर और रिहायशी इमारतें बारिश में ढ़ह गए हैं - दीवाली पर कितने खुश हैं ? 

मन को समझाने के लिए माँ की कही एक बात याद करती हूँ - घरों की रंगाई पुताई करनेवाले हों या बोझा ढ़ोनेवाले या गरीब किसान मजदूर, त्योहार तो सबका है। कोई महँगी मिठाइयाँ खा बाँटकर मनाएगा, कोई गुड़ की डली से मुँह मीठा करके मनाएगा। एक ही परिवार के चार बच्चों में भी सबकी किस्मत समान नहीं होती। धरती सबकी माँ कहलाती है पर बाढ़ में घर सबके नहीं बह जाते। 

वैसे इस बार बाढ़ ने इतनी तबाही मचाई है कि दीपावली का उत्साह फीका पड़ गया है। बारिश भी दीपावली देखकर जाने की जिद पर अड़ी है। रास्तों पर फेंका कचरा गीला होकर सड़ रहा है। 

हे माँ लक्ष्मी ! आप कैसे आएँगी ? इस शहर के गंदे और गड्ढों भरे रास्तों में विचरण की हिम्मत जुटा पाएँगी या पटाखों के, गाड़ियों के धुएँ से भरे प्रदूषित वायुमार्ग से पधारेंगी ? 

दूसरों के घरों को चमकाने में जिनके अपने घर अंधकारमय रह गए, अस्वच्छ रह गए, कभी उनके भी घर चली जाना माँ! वे तंग, गंदी, संकरी गलियों में, काली - मैली झुग्गियों में रहने को मजबूर हैं और आप चमकते, स्वच्छ, सजे सँवरे घरों को पुरस्कृत करने के अपने प्रण पर अडिग हो ! 

ना आप वहाँ जाएँगी, ना इनके दिन बदलेंगे। पीढ़ी दर पीढ़ी यही चलता रहेगा। दीवाली आती रहेगी, जाती रहेगी। सच ही कहा है किसी ने - "पैसा पैसे को खींचता है ।"

रविवार, 13 अक्टूबर 2019

आई, दिवाली आई !!!

आई दिवाली फिर से आई
शुरू हो गई साफ सफाई
आई दिवाली आई !

साफ सफाई सीमित घर तक,
रस्तों पर कचरे का जमघट,
बाजारों की फीकी रौनक,
मिली नहीं है अब तक बोनस,
कैसे बने मिठाई !
आई दिवाली आई !

हुआ दिवाली महँगा सौदा,
पनप रहा ईर्ष्या का पौधा,
पहले सा ना वह अपनापन,
हुआ दिखावे का अब प्रचलन,
खत्म हुई पहुनाई !

कभी धमाके से आती थी,
खूब पटाखों में छाती थी,
मीठा मन था मीठी बोली,
अब कैसी दीवाली, होली !!!

बेबस चेहरों की मायूसी,
मजदूरों की देख उदासी,
सारी खुशियाँ आँख चुरातीं,
त्योहारों की खानापूर्ती,
करती है महँगाई !
आई दिवाली आई !




शुक्रवार, 11 अक्टूबर 2019

दर्द का रिश्ता

दर्द का रिश्ता दिल से है,
और दिल का रिश्ता है तुमसे !
बरसों से भूला बिसरा,
इक चेहरा मिलता है तुमसे !

यूँ तो पीड़ाओं में मुझको,
मुस्काने की आदत है ।
काँटों से होकर फूलों को,
चुन लाने की आदत है ।
पर मन की देहरी गुलमोहर,
शायद खिलता है तुमसे !
बरसों से भूला बिसरा,
इक चेहरा मिलता है तुमसे !

धूमिल सा उन तारों में जब,
मेरा नाम लिखा देखो,
भूरी सी चिड़िया बोले तो
गीत अनाम लिखा देखो !
तब इतना तो कह देना -
"ये वक्त बहलता है तुमसे"...
बरसों से भूला बिसरा,
इक चेहरा मिलता है तुमसे !

निर्मलता की उपमा से,
क्यों प्रेम मलीन करूँ अपना,
तुम जानो अपनी सीमाएँ,
मैं जानूँ, तुम हो सपना !
साथ छोड़कर मत जाना,
भटकाव सँभलता है तुमसे !
बरसों से भूला बिसरा,
इक चेहरा मिलता है तुमसे !

रविवार, 29 सितंबर 2019

कहो ना, कौनसे सुर में गाऊँ ?

कहो ना, कौनसे सुर में गाऊँ ?
जिससे पहुँचे भाव हृदय तक,
मैं वह गीत कहाँ से लाऊँ ?

इस जग के ताने-बाने में
अपना नाता बुना ना जाए
ना जाने तुम कहाँ, कहाँ मैं
मार्ग अचीन्हा, चुना ना जाए !
बिन संबोधन, बिन बंधन 
मैं स्नेहपाश बँध जाऊँ !
कहो ना, कौनसे सुर में गाऊँ ?

नियति-नटी के अभिनय से
क्योंकर हम-तुम विस्मित हों,
कुछ पल तो संग चले, 
बस यही सोच-सोच हर्षित हों !
कोई भी अनुबंध ना हो, पर
पल-पल कौल निभाऊँ !
कहो ना, कौन से सुर में गाऊँ ?

जाने 'उसने' कब, किसको,
क्यों, किससे, यहाँ मिलाया !
दुनिया जिसको प्रेम कहे,
वो नहीं मेरा सरमाया !
जाते-जाते अपनेपन की, 
सौगातें दे जाऊँ !
कहो ना, कौनसे सुर में गाऊँ ? 

जिससे पहुँचे भाव हृदय तक,
मैं वह गीत कहाँ से लाऊँ ?


शनिवार, 27 जुलाई 2019

यथार्थ

मैंने अपने खून के कुछ 
कतरे बोए थे,
उनको सींचा था मैंने 
अपनी साँसों से
अपने ख्वाबों को कूट-काटकर
खाद बनाकर डाली मैंने !!!

उन कतरों को धीमे-धीमे 
बढ़ता देखा,
नन्हें-नन्हें हाथ पाँव 
उनमें उग आए,
मुस्कानों की, किलकारी की
फूट रहीं थीं शाखाएँ जब
तब मैंने इक बाड़ बनाई
नन्हा पौधा पनप रहा था !!!

सारे हक, सारी खुशियाँ, 
सारे शौकों को किया इकट्ठा, 
बाड़ बनाई,
हर आँधी में, हर तूफां में
दिया सहारा !!!

धीरे धीरे पौधा बढ़कर 
वृक्ष हो गया,
अब मेरे समकक्ष हो गया,
उसके अपने हमजोली हैं
उसका है अपना आकाश,
मिट्टी भी उसकी अपनी है,
आँधी तूफां में डटकर अब
कर सकता है स्वयं सामना,
नहीं बाड़ की रही जरूरत !!!

इक दिन कड़ी धूप में मैंने
उसकी छाया जब माँगी तो
उसने उसकी कीमत चाही
मेरी कमियाँ मुझे गिनाईं !
मेरे पैरों के नीचे की,
धरती भी अब तो उसकी थी !!!

गुरुवार, 11 जुलाई 2019

सावन


बोल पथिक ! क्या तेरे देस,
सावन अब भी ऐसा होता है ?
परदेसी बादल, वसुधा के 
नयनों में सपने बोता है ?

बाग-बगीचों में अब भी,
झूले पड़ते हैं क्या सावन के ?
गीत बरसते हैं क्या नभ से,
आस जगाते प्रिय आवन के ?

भोर सबेरे हरसिंगार
टप-टप हीरे टपकाते हैं क्या ?
माटी में मिलते-मिलते भी
सुमन सुरभि दे जाते हैं क्या ?

क्या भीगी-भीगी धरती का,
तन-मन रोमांचित होता है ?
बोल पथिक ! क्या तेरे देस,
सावन अब भी ऐसा होता है ?

क्या भैया की बाट जोहती,
हैं अब भी दो विह्वल अँखियाँ ?
पनघट पर कुछ हँसी ठिठोली,
करती हैं क्या गुपचुप सखियाँ ?

पीपल के नीचे मस्तों का,
जमघट अब भी लगता है क्या ?
बच्चों की टोली का सावन
जल में छप-छ्प करता है क्या ?

क्या त्योहारों पर हृदयों का,
अब भी वही मिलन होता है ?
बोल पथिक ! क्या तेरे देस,
सावन अब भी ऐसा होता है ?

क्या मोती की लड़ियाँ अब भी
झरनों से झर-झर झरती हैं ?
शिव की गौरी-सी ललनाएँ,
पूजाथाल लिए फिरती हैं ?

क्या कजरी-बिरहा में, रिमझिम
सावन की घुलमिल जाती है ?
क्या वंशी की धुन पर राधा
अब भी खिंची चली आती है ?

क्या अब भी कोई मेघ, यक्ष की
पाती ले जाते रोता है ?
बोल पथिक ! क्या तेरे देस,
सावन अब भी ऐसा होता है ?

रविवार, 7 जुलाई 2019

ग़ाफ़िल नहीं हूँ !


नील नभ की छाँह में ठहरा पथिक हूँ,
मैं भटकता दर-ब-दर, बादल नहीं हूँ।

एक अंधी दौड़ है, ये दौर अंधा !

मैं किसी भी दौड़ में शामिल नहीं हूँ।

समझता हूँ, क्या खिलाफ़त, क्या मुहब्बत

बावरा तो हूँ मगर पागल नहीं हूँ। 

देखता हूँ मैं खुली आँखों से सपने,

पर स्वप्न में खोया रहूँ, ग़ाफ़िल नहीं हूँ।

मील का पत्थर सही, राहों में तो हूँ,

ये नहीं मुद्दा, कि मैं मंज़िल नहीं हूँ।

इक थके पंछी ने तूफां से कहा यूँ,

फिर उड़ूँगा, शिथिल हूँ, घायल नहीं हूँ।

शनिवार, 29 जून 2019

तुम समय संग आगे निकलते गए....

तुम समय संग आगे निकलते गए,
मैं जहाँ थी वहीं पर खड़ी रह गई....
इतने ऊँचे हुए, आसमां हो गए,
मैं धरा थी, धरा हूँ, धरा ही रही !!!

रिक्त होती रही श्वास की गागरी
अर्घ्य देती रही अंजुरी-अंजुरी
छटपटाती रही बद्ध पंछी सी, पर
पार कर ना सकी देह की देहरी 
दंड सारे नियत थे मेरे ही लिए
मैं क्षमा थी, क्षमा हूँ, क्षमा ही रही !!!

तुम तो पाषाण से देवता हो गए
पूजने का भी हक, मुझको मिल ना सका,
कौन दर्शन करे, कौन पूजन करे
ये भी दुनिया के लोगों ने निश्चित किया
राम ने स्पर्श से, जिंदा तो कर दिया
पर अहिल्या शिला थी, शिला ही रही !!!

तुम समय संग आगे निकलते गए,
मैं जहाँ थी वहीं पर खड़ी रह गई....
इतने ऊँचे हुए, आसमां हो गए,
मैं धरा थी, धरा हूँ, धरा ही रही !!!





रविवार, 16 जून 2019

एक हृदय पाने की कोशिश !

एक हृदय पाने की कोशिश !

इस कोशिश में शब्द छिन गए
चेहरे की मुस्कान छिन गई
अंतर के सब बोल छिन गए
यादों के सामान छिन गए !
पर हँसने गाने की कोशिश !
एक हृदय पाने की कोशिश !

इस दरिया की गहराई में
डूबे उतरे, पार नहीं था
रात गुज़रती तनहाई में
सपनों का उपहार नहीं था !
ज़िंदा रह पाने की कोशिश !
एक हृदय पाने की कोशिश !

एक हृदय जो कहीं और था
किसी और की थाती था वह
जीवनभर के संग साथ की
किसी प्रिया की पाती था वह !
कैसी दीवाने की कोशिश !
वही हृदय पाने की कोशिश !

किसी बात पर नहीं रीझना 
किसी बात पर नहीं खीझना
मुझको तुमसे नहीं जीतना 
पहली बारिश नहीं भीगना !
दूर चले जाने की कोशिश !
एक हृदय पाने की कोशिश !

धड़कन के इस करुण रुदन पर
घायल मन के मौन कथन पर
अट्टहास करते रहना तुम
इस भोले से अपनेपन पर !!!
इंद्रधनुष छूने की कोशिश !
एक हृदय पाने की कोशिश !!!



शनिवार, 1 जून 2019

नए ब्लॉग का श्रीगणेश

  • आज से अपनी सभी कविताओं को अपने पुराने ब्लॉग 'चिड़िया' से नए ब्लॉग 'प्रतिध्वनि' पर डाल रही हूँ। पिछले कई महीनों से मैं अपने ब्लॉग 'चिड़िया' के लिंक्स फेसबुक पर शेयर नहीं कर पा रही। समस्या क्या है, पता नहीं लग रहा। मैंने कई बार इसकी शिकायत भी दर्ज कराई पर कुछ नहीं हुआ। सिर्फ यह पता चला कि यदि कोई फेसबुक कम्यूनिटी आपकी किसी पोस्ट को अस्वीकृत कर देती है तो फेसबुक आपको आगे उससे संबंधित पोस्ट साझा करने की अनुमति नहीं देता। 
  • मैंने दिमाग पर जोर डाला तो याद आया कि 15 - 16 फरवरी के आसपास मैंने पहली बार iblogger पर अपनी एक कविता की लिंक साझा की थी जिसे अस्वीकार कर दिया गया था । मैं उन दिनों पारिवारिक झमेलों में परेशान थी सो मैंने इस बात पर ध्यान नहीं दिया और करीब दो तीन सप्ताह कुछ लिखा भी नहीं। इस समय गूगल प्लस के बंद होने का ऐलान हो रहा था और साथी ब्लॉगर्स फेसबुक का रुख कर चुके थे । गूगल प्लस के बंद होने पर हमारी रचनाओं को नए पाठकों तक पहुँचाने के लिए यह जरूरी भी था। सो करीब पच्चीस दिन के अंतराल के बाद जब मैंने अपनी नई रचना लिखी तो उसे फेसबुक पर साझा करना चाहा। फेसबुक ने उसे अस्वीकार कर दिया। 
  • अब हाल यह है कि यदि मैं किसी और की पोस्ट पर कमेंट में भी ब्लॉग 'चिड़िया' की लिंक देना चाहूँ या कोई और मेरे ब्लॉग की लिंक साझा करना चाहे तो फेसबुक उसे पोस्ट नहीं होने देता। वहाँ एक तरह से 'चिड़िया' को बैन कर दिया गया है। अब मैं अपनी रचनाओं को नए ब्लॉग 'प्रतिध्वनि' पर साझा करूँगी। मुझे विश्वास है कि आप सबका साथ और सहयोग नए ब्लॉग पर भी मिलता रहेगा।

शुक्रवार, 24 मई 2019

राधा का मैं मौन विरह हूँ !

ना तो मैं तेरे बागों की चिड़िया,
ना बचपन की गुड़िया रे !
ना मैं मैया, ना मैं बिटिया,
ना मुँहबोली बहना रे !
मैं तेरे गाँव के वन की बुलबुल,
गाऊँ आधी रात रे !
मैं तेरी कुइयाँ का पानी,
बरसूँगी बन बरसात रे !!!

ना तेरे पौधों की कच्ची कली,
ना तेरी लगाई बेल रे !
ना तेरे मंदिर की ज्योति,
ना कोई तुझसे मेल रे !
मैं तो तेरे आँगन की तुलसां,
फूलूँ कातिक मास रे !
मैं तो तेरे फूलों की खुशबू,
कोमल सा आभास रे !!!

ना मैं तेरे, बचपन की साथी,
ना तेरी हमराज रे !
ना मैं गीत तेरी बंसी का,
ना तेरे सुर का साज रे !
ना मैं स्वप्न हूँ, ना ही कल्पना,
मैं तो बस विश्वास रे !
राधा का मैं मौन विरह हूँ
सीता का वनवास रे !!!

नहीं स्वामिनी, ना मैं दासी
कैसी अजब पहेली रे !
ना तुझसे कोई रिश्ता नाता
ना मैं सखी - सहेली रे !!!






गुरुवार, 16 मई 2019

ख़ता है अपनी या....

कहाँ - कहाँ से मिटाएँ
तुम्हारी यादों को,
ख़ता है अपनी या
इल्ज़ाम दें हालातों को। 

एक खंजर सा उतरता
है किसी सीने में,
लम्हे - लम्हे में 
तड़पता है कोई रातों को ।

यूँ तो तूफान ने
तोड़ा है बहुत कुछ मेरा,
मैंने छूने ना दिया
बस तेरी सौगातों को ।

नींद डरती है कि फिर
ख़्वाब ना बह जाए कोई,
कैद अश्कों को करो
रोक लो बरसातों को ।

तेरी खामोशी से दिल
ख़ौफ़ज़दा है इतना,
कैसे चाहे कि कोई
बाँट ले जज़्बातों को ।

आज खुद देख लिया
रूह को मरते अपनी,
और ग़ज़लों में कहा
ज़िंदगी की बातों को ।

सोमवार, 13 मई 2019

मदर्स डे

भाग - 1
कल मदर्स डे था
सबसे छोटी बिटिया ने
मदर्स डे मनाया
माँ को मीठा सा चुंबन
देती हुई प्यारी सी फोटो
डीपी पर रखी।

सबसे बड़े और लाडले
बेटे ने मदर्स डे मनाया
माँ को बाँहों में घेरे
लाड दर्शाती फोटो शेयर की
फेसबुक पर और
फोटो के नीचे लिखा
'लव यू माँ' का घोषणापत्र।
पंद्रह मिनट में सौ लाइक्स !!!
ये माँ का कमाल है या बेटे का ?
पता नहीं ।

मंझली सुपुत्री ने लिखी
एक मार्मिक कविता और
ट्विटर पर उसे माँ के नाम कर दिया।
इस तरह बच्चों ने मनाया मदर्स डे !

 भाग - 2
कल मदर्स डे था।
माँ ने सोचा,
बच्चों के लिए क्या स्पेशल बनाऊँ ?
छुटकी के लिए पिज्जा बनाया
मँझली के लिए फ्रूट कस्टर्ड और
बड़े बेटे के लिए मैंगो आइस्क्रीम !
आधा दिन तो किचन में निकल गया।

बेटे की परीक्षा है,
छुटकी का समर कैंप और
मंझली की स्विमिंग और डांस क्लास
बार बार याद करती है माँ
सबकी सारी तैयारी हो गई ना ?
मैं कुछ भूल तो नहीं रही ?

बड़ा बच्चा, छोटी बच्ची
और बड़ी होती हुई बच्ची !
बच्चे तो आखिर बच्चे ही हैं।
उम्र के हर पड़ाव से तालमेल बिठाना
माँ अच्छी तरह जानती है।
माँ बनने के  बाद हर रोज
'मदर्स डे' मनाती है हर माँ !!!



मंगलवार, 7 मई 2019

हम आशाओं पर जीते हैं !

घनघोर निराशा के युग में
हम आशाओं पर जीते हैं,
रखते हैं चाह अमरता की
और घूँट गरल के पीते हैं।

सीते हैं झूठे वादों से,
हम यथार्थ की फाटी झोली।
कागा के कर्कश स्वर को,
समझ रहे कोयल की बोली ।
विद्वानों को उपहास प्राप्त,
मूरख पा जाता है वंदन।
ईश्वर भी असमंजस में हैं,
किसका मंदिर,किसका चंदन ?
सबको अपनी पड़ी यहाँ
करूणा के घट सब रीते हैं।।

घनघोर निराशा के युग में
हम आशाओं पर जीते हैं।।

छ्ल कपट, प्रेम का भेष धरे
मैत्री का जाल बिछाता है।
कंचन पात्रों में जहर भरे,
अमृत का स्वांग रचाता है।
जीवन के चौराहों पर अब,
सारी राहें भरमाती हैं।
दुनियादारी के दाँव पेच,
दुनिया ही यहाँ सिखाती है ।
जीने की कठिन लड़ाई में,
दीनों के सब दिन बीते हैं।

घनघोर निराशा के युग में
हम आशाओं पर जीते हैं।

यह कामवासना का कलियुग,
यह स्वार्थसाधना का कलियुग,
यह अर्थकामना का कलियुग,
यह छद्म धारणा का कलियुग !
संस्कारपतन का युग है यह,
अन्याय, दमन का युग है यह,
कैसी प्रगति, कैसा विकास,
बस शस्त्र सृजन का युग है यह !
सब संसाधन धनवानों के
निर्धन को नहीं सुभीते हैं।

घनघोर निराशा के युग में
हम आशाओं पर जीते हैं !!!













मंगलवार, 30 अप्रैल 2019

मेरे दोस्त !

ज़िंदा हूँ साँसें अब भी चल रही हैं मेरे दोस्त !
थकी-थकी सी शाम, ढल रही है मेरे दोस्त !

बुलबुल ने साथ छोड़ दिया सूखे गुलों का
कि रुत बहार की निकल रही है मेरे दोस्त !

महफिल में कौन देख सका शमा के आँसू
परवाने से पहले वो जल रही है मेरे दोस्त !

अहसास होगा अपनी ख़ता का कभी तुम्हें
रूह इस खयाल से, बहल रही है मेरे दोस्त !

बहला रहे हैं दिल को गलतफहमियों से हम
कैसी बुरी आदत ये पल रही है मेरे दोस्त !

दिन में पचास रंग बदलता रहा सूरज
धरती भी रंग अब, बदल रही है मेरे दोस्त !

दिल के उसी कोने को जरा छू के देखना
धड़कन वहाँ मेरी मचल रही है मेरे दोस्त !





बुधवार, 24 अप्रैल 2019

वेदना से प्रेम तक

एक पल का,
हाँ, सिर्फ एक पल का
समय लगता है,
भावना का रुपांतरण
वेदना में होने के लिए !
और वही पल साक्षी होता है
मनुष्य में ईश्वर के अंश का।

वेदना के अभाव में
ईश्वर के दूत भटकते हैं धरती पर,
खोजते हैं अश्रुओं के मोती
जो नयनों की सीपियों में पलते
और सिर्फ इसी लोक में मिलते हैं।

ब बदल जाती है
वेदना संवेदना में
तब स्वर्ग से होती है पुष्पवर्षा
झाँकते हैं देवगण
मनुष्यों के हृदय से !

संवेदना के तुषार बिंदुओं में
भीगने आती हैं अप्सराएँ !
ठीक उस क्षण, जिस क्षण
संवेदना हो जाती  है प्रेम
उसी क्षण हो जाती है
यह धरती स्वर्गसम !!!

गुरुवार, 18 अप्रैल 2019

गीत उगाए हैं !!!

मन की बंजर भूमि पर,
कुछ बाग लगाए हैं !
मैंने दर्द को बोकर,
अपने गीत उगाए हैं !!!

रिश्ते-नातों का विष पीकर,
नीलकंठ से शब्द हुए !
स्वार्थ-लोभ इतना चीखे कि
स्नेह-प्रेम निःशब्द हुए !
आँधी से लड़कर प्राणों के,
दीप जलाए हैं !!!
मैंने दर्द को बोकर अपने....

अपनेपन की कीमत देनी,
होती है अब अपनों को !
नैनों में आने को, रिश्वत
देती हूँ मैं सपनों को !
साँसों पर अभिलाषाओं के
दाँव लगाए हैं !!!
मैंने दर्द को बोकर अपने....

नेह गठरिया बाँधे निकला,
कौन गाँव बंजारा मन !
जाना कहाँ, कहाँ जा पहुँचा,
ठहर गया किसके आँगन !
पागल प्रीत लगा ना बैठे,
लोग पराए हैं !!!
मैंने दर्द को बोकर, 
अपने गीत उगाए हैं !!!

रविवार, 14 अप्रैल 2019

और मुकम्मल तन्हाई !

आधा चाँद है, आधी रात
और मुकम्मल तन्हाई !
राज़ अधूरे, बात अधूरी
और मुकम्मल तन्हाई !

जागी जागी आँखों पर
अश्कों का हक भी पूरा नहीं,
नींद अधूरी, ख्वाब अधूरे
और मुकम्मल तन्हाई !

खुशबू से लिखे थे खत मैंने,
तुमको लफ्जों की आदत थी !
तुम पढ़ ना सके पैगाम अधूरे
और मुकम्मल तन्हाई !

कुछ हम पर था ऐतबार अधूरा
कुछ मगरूरी, कुछ दूरी !
चाह अधूरी, प्यार अधूरा
और मुकम्मल तन्हाई !

लहरों ने मिटा डाले होंगे
सागर के किनारे से सारे निशां,
वो रेत के घर, वो नाम अधूरे
और मुकम्मल तन्हाई !

मंजिल को पाने की चाहत
और राहों की पहचान नहीं,
है सफर अधूरा, साथ अधूरे
और मुकम्मल तन्हाई !

शनिवार, 13 अप्रैल 2019

मानव, तुम्हारा धर्म क्या है ?

धर्म चिड़िया का,
खुशी के गीत गाना  !
धर्म नदिया का,
तृषा सबकी बुझाना ।
धर्म दीपक का,
हवाओं से ना डरना !
धर्म चंदा का,
सभी का ताप हरना ।।

किंतु हे मानव !
तुम्हारा धर्म क्या है ?

धर्म तारों का,
तिमिर में जगमगाना !
धर्म बाती का,
स्वयं जल,तम मिटाना ।
धर्म वृक्षों का,
जुड़े रहना मृदा से !
धर्म फूलों का,
सुरभि अपनी लुटाना ।।

किंतु हे मानव !
तुम्हारा धर्म क्या है ?

धर्म चींटी का,
बताना मर्म श्रम का !
धर्म सूरज का,
अधिक ना तप्त होना ।
धर्म सागर का,
रहे सीमा में अपनी !
धर्म मेघों का,
बरसकर रिक्त होना ।।

किंतु हे मानव !
तुम्हारा धर्म क्या है ?

धर्म पर्वत का,
अचल रहना हमेशा !
धर्म ऋतुओं का,
धरा को रंग देना ।
धर्म धरती का,
उठाना भार सबका !
धर्म नभ का है,
विहग को पंख देना ।।

किंतु हे मानव !
तुम्हारा धर्म क्या है ?
 --- मीना शर्मा ---

मंगलवार, 9 अप्रैल 2019

एक कहानी अनजानी !

आँखों में बसा लो स्वप्न मेरा
होठों में दबा लो गीत मेरे !
बंजारे मन का ठौर कहाँ,
ढूँढ़ोगे तुम मनमीत मेरे !
बस एक कहानी अनजानी
सीने में छुपाकर जी लेना !!!

फूलों की खुशबू बिखरेगी,
तो बाग भी सारा महकेगा ।
धीमे से आना द्वार मेरे,
आहट से ये मन बहकेगा !
तुम मेरी कहानी अनजानी
सीने में छुपाकर जी लेना !!!

तारों में बीच में मत खोजो,
चंदा के गुमसुम मुखड़े को,
रूठे रहने दो आज मुझे,
मत खत्म करो इस झगड़े को !
फिर एक कहानी अनजानी
सीने में छुपाकर जी लेना !!!

नदिया के किनारे सूने क्यों,
क्यों सागरतट है वीराना ?
तुम जिद ना करो यूँ सुनने की,
जिद्दी लहरों का अफसाना !
अनकही, कहानी अनजानी
सीने में छुपाकर जी लेना !!!

मत क्षुद्र पतंगे - सा जलना,
नदिया-सागर सम मत मिलना !
धरती-नभ जैसे मिलकर हम,
रच लेंगे एक क्षितिज अपना !
हाँ, यही कहानी अनजानी
सीने में छुपाकर जी लेना !!!

एक कहानी अनजानी
सीने में छुपाकर जी लेना !!!







गुरुवार, 4 अप्रैल 2019

समय ना मिला....

सारे संसार के काम करता रहा,
तेरे सुमिरन का मुझको समय ना मिला !
सारी दुनिया से नाता निभाता रहा,
तुझसे मिलने का मुझको समय ना मिला !

सुबह आती रही, शाम जाती रही,
ज़िंदगी खेल अपने दिखाती रही,
तेरी भक्ति कहाँ से शुरू मैं करूँ,
इसी उलझन में मुझको समय ना मिला !
तुझसे मिलने का.....

मिट गए रात दिन, बुलबुलों की तरह
देह मुरझाई सूखे गुलों की तरह,
फिर भी जागा नहीं, मोह त्यागा नहीं,
तेरे दर्शन का मुझको समय ना मिला !
तुझसे मिलने का....

खेत चिड़िया ने जब चुग लिया, चुग लिया !
माया ठगिनी ने जब ठग लिया, ठग लिया !
भर गया तब घड़ा, काल सम्मुख खड़ा !
हाय ! बचने का मुझको समय ना मिला !!!
तुझसे मिलने का.....

गुरुवार, 28 मार्च 2019

तू गा रे ! साँझ सकारे !!!

ओ मांझी ! तेरे गीत बड़े प्यारे !
तू गा रे ! साँझ सकारे !!!
लहरों के मीत,गीतों में प्रीत,
तू गा रे ! साँझ सकारे !!!

मांझी, तू नदिया का साथी,
तू जाने वो क्या कहती !
कब इठलाती, कब मुस्काती,
कब उसकी आँखें भरती ।
नदिया गाकर किसे बुलाए,
हमें भी बता रे !
तू गा रे ! साँझ सकारे !!!

धारा के कलकल स्वर में,
सुर मिल जाएगा तेरा,
गीत विरह के मत गाना
उस पार पिया का डेरा !
साँझ ढले से पहले मांझी,
पार पहुँचना रे !
तू गा रे ! साँझ सकारे !!!

बीच बीच में भँवर पड़े हैं,
जलधारा है गहरी !
अब पतवार थाम ले कसकर,
ओ प्राणों के प्रहरी !
धारा के संग धारा होकर,
कहाँ तू चला रे !
तू गा रे ! साँझ सकारे !!!

लहरों के मीत,गीतों में प्रीत,
तू गा रे ! साँझ सकारे !!!
तू गा रे ! साँझ सकारे !!!


रविवार, 24 मार्च 2019

दो नयन अपनी भाषा में जो कह गए....

नेत्र भर आए और होंठ हँसते रहे,
प्रेम अभिनय से तुमको,कहाँ छ्ल सका ?
दो नयन अपनी भाषा में जो कह गए
वो किसी छंद में कोई कब लिख सका ?

प्रेम में कोई अश्रु गिरा आँख से,
और हथेली में उसको सहेजा गया।
उसको तोला गया मोतियों से मगर
मोल उसका अभी तक कहाँ हो सका ?
ना तो तुम दे सके, ना ही मैं ले सकी
प्रेम दुनिया की वस्तु, कहाँ बन सका ?
दो नयन अपनी भाषा में जो कह गए
वो किसी छंद में कोई कब लिख सका ?

गीत के सुर सजे, भाव नूपुर बजे,
किंतु मन में ना झंकार कोई उठी।
चेतना प्राण से, वेदना गान से,
प्रार्थना ध्यान से, कब अलग हो सकी ?
लाख पर्वत खड़े मार्ग को रोकने,
प्रेम सरिता का बहना कहाँ थम सका ?
दो नयन अपनी भाषा में जो कह गए
वो किसी छंद में कोई कब लिख सका ?

हो विदा की घड़ी में भी जिसका स्मरण
कब उसे काल भी, है अलग कर सका ?
था विरोधों का स्वर जब मुखर हो चला,
प्रेम सोने सा तपकर, निखरकर उठा।
चिर प्रतीक्षा में मीरा की भक्ति था वह,
प्रेम राधा का अभिमान कब बन सका ? 
दो नयन अपनी भाषा में जो कह गए
वो किसी छंद में कोई कब लिख सका ?

गुरुवार, 7 मार्च 2019

प्रार्थना

मेरे जीवन का पल-पल
प्रभु तेरा पूजन हो जाए,
श्वास-श्वास में मधुर नाम
भौंरे-सा गुंजन हो जाए।

जब भी नयन खुलें तो देखूँ
तेरी मोहिनी मूरत को,
मेरा मन हो अमराई
तू कोकिल-कूजन हो जाए।

जग में मिले भुजंग अनगिनत
उनके दंशो की क्या गिनती?
वह दुःख भी अच्छा है जिसमें
तेरा सिमरन हो जाए ।

हृदय धरा पर बरसो प्रभुवर
श्यामल मेघों-से रिमझिम,
कृपा दृष्टि की धारा बरसे
जीवन सावन हो जाए।

इतना छ्ल पाया पग-पग
दुनिया का प्रेम भयावह है,
अब तुमसे नाता ना टूटे
ऐसा बंधन हो जाए ।


रविवार, 17 फ़रवरी 2019

विराम

कुछ अपरिहार्य कारणों से एक छोटे अंतराल के लिए लेखन से विदा ले रही हूँ। पिछला वर्ष मेरे लिए बहुत ज्यादा उतार चढाव का रहा। पापा को खोया। कार्यस्थल पर भी अतिरिक्त कार्यभार से मन मस्तिष्क थकान महसूस कर रहा है। जीवन में सबसे कठिन समय वह नहीं होता जब आप अपना सारा धन गँवा दें और आपके पास फूटी कौड़ी भी ना हो। मेरे अनुसार सबसे कठिन समय वह होता है जब आपको आपके 'अपनों' के असली चेहरे दिखाई दें। अब कुछ समय के लिए आत्मचिंतन की आवश्यकता है। 
आप सभी के स्नेह की प्रतीक सैकड़ों टिप्पणियाँ, जो मेरे ब्लॉग पर थीं, वे अब मेरे मन में हैं। जल्दी ही लौटूँगी। यह पूर्णविराम नहीं है। सभी को बहुत सारे स्नेह के साथ 
- मीना

रविवार, 27 जनवरी 2019

टुकड़ा मैं तेरे दिल का....

पापा की उम्र हो गई थी, वे तकलीफ झेल रहे थे, शारीरिक कष्टों से उन्हें मुक्ति मिल गई, वे निर्वाण के मार्ग पर चले गए, ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे.....पिछले पाँच दिनों से सांत्वना के ऐसे तमाम शब्द सुनते हुए इस बात पर यकीन करने की कोशिश कर रही हूँ कि पापा अब इस दुनिया में नहीं रहे। मायका और मेरा घर पास पास ही है, करीब सात आठ मिनट की दूरी पर.... कुछ भी काम होता, कोई बात होती, पापा कहते - मीना को बुलाओ। मीना की बात पापा के लिए लोहे की लकीर थी। सितंबर 2018 में पापा की तबीयत बिगड़नी जब शुरू हुई थी तो किसी के कहने से अस्पताल नहीं जा रहे थे। मैं स्कूल से गई तो देखा, चेहरा और पैरों पर सूजन है। मैंने कहा - पापा तैयार हो जाओ, चेकअप के लिए चलते हैं। पापा तैयार हो गए। मम्मी ने आश्चर्य प्रकट किया-अभी लता ( छोटी बहन ) इतना जिद करके गई, मैंने भी कितना कहा, तब तो नहीं गए ये !!! एक सप्ताह बाद पापा की तबीयत इतनी खराब हो गई कि अस्पताल में एडमिट करना पड़ा। वहाँ से एक सप्ताह बाद छुट्टी मिली तो मैं अपने घर ले आई पापा - मम्मी दोनों को। पापा की तबीयत अब पहले से बेहतर थी, हालांकि कमजोरी बहुत थी। पंद्रह दिन की सेवा सुश्रुषा के बाद स्वास्थ्य में सुधार आता लग रहा था।
अचानक एक रात करीब ढ़ाई बजे पापा जोर जोर से रोने लगे। पापा और मम्मी हमारे बेडरूम में सोते थे और हम तीनों बाहर हॉल में (मैं, मेरे पति और बेटा अतुल)। हम तीनों उठकर भागे अंदर। मम्मी बदहवास। पापा रो रोकर बोल रहे थे - अरे ये मुझे ले जाएँगे, मुझे मार देंगे, ये मुझे मारने आए हैं। मैं घबरा तो गई थी पर हिम्मत करके पापा को छाती से चिपकाकर कहा - कौन ले जाएगा पापा ?
पापा वैसे ही रो रोकर - ये लोग, देख ना सामने खड़े। आदमी, औरतें, बच्चे सब हैं। अरे ! ये मुझे ले जाएँगे !
मैं - पापा आप मुझको पकड़ लो, किसकी हिम्मत है जो मुझसे आपको छीनकर ले जा सके !
पापा ने एकदम डरे हुए बच्चे की तरह मुझे भींच लिया। मैंने मम्मी से भगवद्गगीता माँगी और पापा से कहा - पापा, गीताजी सुनाती हूँ। आप तो रोज गीताजी पढ़ते हो, आपको कौन डरा सकता है।
एक हाथ से पापा को चिपकाए हुए, दूसरे हाथ से भगवदगीता पकड़े, पहला अध्याय पूरा सुनाया। पापा डर से थर थर काँप रहे थे। मम्मी, ये, अतुल तीनों हैरान परेशान खड़े रहे। ना जाने कौनसी दैवीय शक्ति ने मुझे उस समय हिम्मत दी। दूसरा अध्याय पूरा होते होते पापा थोड़े संयत हुए और बोले - मैं अपने घर जाऊँगा। सुबह के चार बज रहे थे। रिक्शा मँगाकर हम सब उन्हें उनके घर ले गए। वहाँ चाय पीकर पापा सो गए। उस दिन के बाद पापा जैसे संसार से विरक्त हो गए। कोई कुछ पूछता तो जवाब दे देते, अन्यथा मौन। कभी कभी टेलिविजन पर कोई प्रोग्राम देख लेते। वरना वो और उनकी भगवद् गीता। लगातार छः छः घंटे गीता पढ़ना उनका नित्यकर्म हो गया। शायद उन्हें आभास हो गया था।
इस बार तबीयत बिगड़ी तो सीधे आइसीयू में वेंटिलेटर पर। दो दिन में पापा की शक्ल बदल गई जैसे। फिर वही जिद, ये मशीनें निकाल दो, मेरा दम घुटता है। मुझे घर जाना है। एक सप्ताह डॉक्टरों ने अपनी कोशिशें करके जवाब दे दिया। घर पर ही ऑक्सीजन लगाकर रखने को कह दिया। 
18जनवरी को हम पापा को घर लाए। मम्मी ने बताया कि उनकी भगवद् गीता का पाठ अधूरा रह गया था। तब मैंने उनके पास बैठकर गीताजी के सातवें से लेकर अठारहवें अध्याय तक पढ़कर सुनाया। रात भर पापा के पास बैठी विष्णु सहस्त्रनाम का पाठ, नारायणजाप करती रही। बचपन से अब तक के पापा के सारे रूप, उनकी सारी भूमिकाएँ स्मृति को झकझोर दे रही थीं। तब ब्लॉग पर एक पोस्ट लिखी। पापा के स्वास्थ्य लाभ के लिए सभी ने प्रार्थना भी की कमेंट्स में। 
लेकिन जब चलने का वक्त आ जाता है तो कोई दुआ काम नहीं आती। 
21 जनवरी की दोपहर करीब चार बजे मैं पापा के पास बैठी उनका सिर सहला रही थी। उनका बात करना तो एक हफ्ते से बंद था। अचानक वे बोलने लगे - मीना, मैं तेरा बेटा बनूँगा। 
उनकी आवाज एकदम बदल गई थी और वे कठिनाई से ही बोल पा रहे थे। 
मैंने कहा - पापा, बेटा ही बन गए हो आप मेरा, देखो ना आपको चम्मच से खिलाती पिलाती हूँ ना बच्चे की तरह। 
पापा - नहीं, मैं तेरा बाबू बनूँगा। अतुल बनूँगा। 
मैं - अच्छा, कब बनोगे मेरा बाबू ?
पापा - आज ही बनूँगा।
मैं - पक्का ?
पापा - हाँ पक्का।
तभी ना जाने किस प्रेरणा से मेरे मुँह से निकला - पापा, आप अतुल का बेटा बनकर मेरे पास लौट आना। 
मैंने देखा कि उसके बाद पापा के चेहरे पर असीम शांति छा गई।
उस समय मेरे अलावा मेरी दो बहनें और मेरा छोटा भाई भी पापा के पास ही थे पर पापा ने मुझसे ही ऐसा क्यों कहा? यह भी एक ऋणानुबंध ही तो है !!!
उसके बाद दो तीन बार अपने दोनों हाथ उठाकर उन्होंने हमें आशीर्वाद दिया।
रात दस बजे पापा ने चार पाँच लंबी साँसें लीं और अपने पार्थिव शरीर का त्याग कर दिया। 
पापा, इस बार मैं आपको नहीं बचा पाई ! काल के क्रूर पंजे आपको छीन कर ले ही गए। आप जहाँ भी हों, परमशांति में हों ! आपका आशीष हम पर सदा बना रहे!!!

सोमवार, 21 जनवरी 2019

पापा बहुत कुछ करते हैं



31 दिसंबर 2017 (पापा के जन्मदिन पर ली गई तस्वीर...)
मम्मी कहती उन्हें आलसी
नहीं 'वाक' पर जाते
ना जाने थोड़ा चलने से
क्यों पापा थक जाते !
पर छायादार पेड़ के जैसे
हम सब पर साया रखते हैं,
पापा कुछ नहीं करके भी
बहुत कुछ करते हैं !!!

पीहर आई हर बेटी की
सुनते हैं दुःख सुख की बातें,
जर्जर होती काया पर भी
सहते बीमारी की घातें !
भजन कीर्तन गायन से
मन की व्यथा बिसरते हैं !!!
पापा कुछ नहीं करके भी
बहुत कुछ करते हैं !!!

पोतों की बचपन लीलाएँ
देख-देख मुस्काते हैं,
मूड कभी आया तो पापा
हारमोनियम बजाते हैं !
इधर उधर बिखरी चीजों को
उठा-उठाकर रखते हैं !
पापा कुछ नहीं करके भी
बहुत कुछ करते हैं !

17 जनवरी 2019.....(पापा अस्पताल में हैं)
अस्पताल में...
वार्डबॉय से नर्सों तक, 
सबको नाच नचाते हैं !
इस कैद से मुझको रिहा करो,
वे रह-रहकर बड़बड़ाते हैं !
डॉक्टरों के सारे ताम-झाम
पापा के आगे पानी भरते हैं !

काल से लड़ते हैं मेरे बहादुर पापा
हम डरपोक बच्चे डरते हैं !
झूठमूठ कहते हैं - अब ठीक हूँ,
तब मेरी आँखों से आँसू झरते हैं !!!
पापा कुछ नहीं करके भी
बहुत कुछ करते हैं !!!


शनिवार, 19 जनवरी 2019

दूर के ढोल सुहाने

दूर के ढोल सुहाने
लगते हैं
पास आने पर डराने
लगते हैं।

जिद ना करना
सितारों को कभी छूने की ।
आसमां के फूल
हाथ नहीं महकाते
उनको सहलाओ तो वे
हाथ जलाने लगते हैं।

वक्त गर साथ दे,
चूहा भी शेर होता है।
गुरुघंटाल भी गुरुओं को
सिखाने लगते हैं।
खिले फूल लगते हैं
सब को प्यारे,
फेंक दिए जाते हैं वे, जब
मुरझाने लगते हैं।

इक नया रूप निकलता है
यहाँ पर्त-दर-पर्त !
हर एक चेहरे को मुखौटे
लगाने पड़ते हैं।
महल विश्वास का
ढह जाता है पल दो पल में
जिसकी बुनियाद ही रखने में
जमाने लगते हैं।

खाली घड़े इतराने लगते हैं
आधा भरते ही,
छलकने छलछलाने लगते हैं !

मंगलवार, 1 जनवरी 2019

जनम-जनम के अनुबंधों पर !!!

जनम जनम के अनुबंधों पर
हावी हो गई जग की रीत !
फिर सपनों के ताजमहल की
कब्र में सोई मेरी प्रीत !!!

मूरत तेरी गढ़ते जाना
पल-पल सूली चढ़ते जाना
कौन कसौटी, क्या पैमाना
ना यह जीना, ना मर पाना !

नियति डोर को तोड़ के आजा
मेरे मन के बिछुड़े मीत !
फिर सपनों के ताजमहल की
कब्र में सोई मेरी प्रीत !!!

मैंने तो पाषाणों से भी
बहते देखे हैं 'सोते' !
क्या मेरी पीड़ा पर अब भी
निष्ठुर नयन नहीं रोते ?

टूटे तार हृदय वीणा के,
बिखरा साँसों का संगीत !
फिर सपनों के ताजमहल की
कब्र में सोई मेरी प्रीत !!!

जिनको निभा नहीं पाए तुम,
काहे कर गए ऐसे कौल !
करते हैं उपहास मेरा अब
मेरे ही गीतों के बोल !

भावों के इस खेल में प्रिय,
मैं हार गई, ना पाई जीत !
फिर सपनों के ताजमहल की
कब्र में सोई मेरी प्रीत !!!