रविवार, 22 जनवरी 2023

धूप

माघ की मरमरी ठंड को ओढ़कर,

धूप निकली सुबह ही सुबह सैर पर,

छूट सूरज की बाँहों से भागी, मगर

टूटे दर्पण-सी बिखरी इधर, कुछ उधर !


सूखे पत्तों पे कुछ पल पसरती रही,

धूप पेड़ों से नीचे फिसलती रही,

धूप थम-थम के बढ़ती रही दो पहर,

मिल के पगली पवन से सिहरती रही !


चाय की प्यालियों में खनकती रही,

गुड़ की डलियों में घुलकर पिघलती रही

खींचकर जब रजाई, उठाती है माँ,

धूप चादर में घुस कुनमुनाती रही !


गुनगुनी - गुनगुनी धूप उतरी शिखर,

स्वर्ण आभा से पर्वत को नहला गई,

नर्म गालों को फूलों के, सहला गई,

बस अभी आ रही, कह के बहला गई !


जिद की खेतों ने, 'रुक जाओ ना रात भर'

धूप अँखियों से उनको डपटती रही !

कुछ अटकती रही, कुछ भटकती रही,

हर कहीं थोड़ा - थोड़ा टपकती रही !


घास का मखमली जब बिछौना मिला,

खेलने को कोई मृग का छौना मिला,

साँझ आने से पहले ही वह खो गई,

बँध के सूरज की बाँहों में वह सो गई !