शनिवार, 23 दिसंबर 2017

लम्हे

खनकती चूड़ियों वाली सुबहें
छ्नकती झाँझरों वाली रातें,
नर्म नाजुक से महकते लम्हे,
बंद हैं वक्त के पिटारे में !

प्यार की धड़कनों को सुनते हुए
ख्वाब आँखों में नए बुनते हुए,
शबनमी शब के बहकते लम्हे
बंद हैं वक्त के पिटारे में !

पंखुरी खोलते फूलों जैसे,
अनकहे, अनसुने बोलों जैसे,
रेत की तरहा फिसलते लम्हे,
बंद हैं वक्त के पिटारे में !

रेशमी सलवटों को छूते हुए,
जैसे खुशबू की फसल बोते हुए,
मिलती नज़रों से सिहरते लम्हे,
बंद हैं वक्त के पिटारे में !

कहने सुनने हैं फसाने कितने
कैद में गुजरे, जमाने कितने !
बाहर आने को तरसते लम्हे
बंद हैं वक्त के पिटारे में !

मंगलवार, 19 दिसंबर 2017

दो बालगीत

1- जानवरों का नववर्ष
जंगल के पशुओं ने सोचा
हम भी धूम मचाएँ ,
मानव के जैसे ही कुछ
हम भी नववर्ष मनाएँ !

वानर टोली के जिम्मे है
फल-फूलों का इंतज़ाम,
मीठे-मीठे मधु के छत्ते
ले आएँगे भालूराम !

हिरन और खरगोश पकाएँ
साग और तरकारी,
सारे पक्षी मिलजुल कर लें
दावत की तैयारी !

नृत्य कार्यक्रमों का
निर्देशन करवाएँगे मोर,
गायन के संचालन में
कोकिलजी मग्न विभोर !

शेरसिंह और हाथीजी तो
होंगे अतिथि विशेष,
आमंत्रित सारे पशु-पक्षी
कोई रहे ना शेष !

कोई पशु किसी को,
उस दिन ना मारे,ना खाए !
एक दिवस के खातिर सब
शाकाहारी बन जाएँ !

जश्न मनाएँ नए वर्ष का,
मौज करें, नाचे गाएँ !
इंसानों को  नए साल की
भेजें शुभ - कामनाएँ !!!
******************
2- ध्वनि - गीत
टपटप टिपटिप बूँदें गिरतीं,
रिमझिम वर्षा आती !
झरझर झरझर बहता झरना,
कलकल नदिया गाती !

टणटण करता घंटा बाजे,

घुँघरू करते रुनझुन !
किर्र किर्र झिंगुर करता है,
भौंरे करते गुनगुन !

काँव-काँव कौआ चिल्लाए,
कोयल कुहू-कुहू गाती !
चूँ-चूँ-चूँ-चूँ करती चिड़िया,
दिन भर शोर मचाती !

खड़-खड़ करते सूखे पत्ते,
इधर-उधर उड़ जाते !
सर-सर करती चले हवा तो,
पौधे कुछ झुक जाते !

छुमछुम पायल को छ्नकाती,
गुड़िया मेरी आती !
मिट्ठू - मिट्ठू तोते जैसी,
तुतलाकर बतियाती !!!


शनिवार, 16 दिसंबर 2017

सुन रहे हो ना....

गर्जते बादलों से
बारिश नहीं होती,
खामोश मेघों का भरा मन
फूट पड़ता है !
तुम सुन रहे हो ना,
मुझे कुछ बताना है तुम्हे....

वह फुलचुही चिड़िया
फिर आई थी फूलों पर !
बुलबुल ने मुँडेर से ही
'हैलो' कह दिया था !
कबूतरों का जोड़ा बारबार
मँडरा रहा था बालकनी में
घरौंदा बनाने की फिराक में

और हाँ,आजकल आ रही है
एक नई मेहमान भी !
चिकचिक करती गिलहरी!
चिड़ा चिड़िया रोज आते हैं
बच्चों को साथ लेकर !

सांझ पड़े, दूर आसमां में
बगुलों को उड़ते देख
मन उड़ने को होता है !
वो तांबई भूरे पंखों वाली
कोयल रोज बैठती है
सामने के पेड़ पर खामोश !
गाती क्यों नहीं ?
क्या गाने का मौसम
नहीं है यह ?

याद है तुम्हें, तुमने कहा था...
तुम्हारी अच्छी रचनाएँ
उभरती हैं हमारे झगड़े के बाद !
ये कैसी है ?
और कहा था तुमने....
"तुम्हें संवाद करना नहीं आता,
प्रेमपत्र क्या खाक लिखोगी ?"
ये कैसा है ?

तुम सुन रहे हो ना ?
मुझे और भी बहुत कुछ
कहना है, बताना है !!!
पर....





गुरुवार, 7 दिसंबर 2017

खो गई...'वह'

टुकड़े-टुकड़े जिंदगी में,
जिंदगी को खोजती है ।
बँट गई हिस्सों में,
खुद को खोजती है ।

वह सहारा, वह किनारा,
और मन का मीत भी !
आरती वह, वही लोरी,
वही प्रणयगीत भी ।

वह पूजाघर का दीप,
रांगोली, वंदनवार !
वह झाड़ू, चूल्हा, चौका,
वही छत, नींव, दीवार !!

वृद्ध नेत्रों के लिए
इक रोशनी है वह,
और बच्चों के लिए
जादुई जिनी है वह ।

प्रियतम की पुकार पर
प्रियतमा वह बन गई,
दूर करने हर अँधेरा
खुद शमा वह बन गई !

पत्नी, माँ, भाभी, बहू,
क्या क्या नहीं वह ?
और यह भी सत्य,
इनमें खो गई...'वह' ।।

मंगलवार, 5 दिसंबर 2017

आखिर क्यों ?

रख दी गिरवी यहाँ अपनी साँसें
पर किसी को फिकर तो नहीं
बहते - बहते उमर जा रही है
आया साहिल नजर तो नहीं....

वक्त अपने लिए ही नहीं था
सबकी खातिर थी ये जिंदगी,
जो थे पत्थर के बुत,उनको पूजा
उनकी करते रहे बंदगी !

जिनकी खातिर किया खुद को रुसवा
उनको कोई कदर तो नहीं !
बहते - बहते उमर जा रही है,
आया साहिल नजर तो नहीं....

अपना देकर के चैन-औ-सुकूँ सब,
खुशियाँ जिनके लिए थीं खरीदी,
दर पे जब भी गए हम खुदा के,
माँगी जिनके लिए बस दुआ ही !

वो ही जख्मों पे नश्तर चुभाकर,
पूछते हैं, दर्द तो नहीं...?
बहते-बहते उमर जा रही है,
आया साहिल नजर तो नहीं....

रख दी गिरवी यहाँ अपनी साँसे,
पर किसी को फिकर तो नहीं
बहते - बहते उमर जा रही है,
आया साहिल नजर तो नहीं...

सोमवार, 4 दिसंबर 2017

जब हम बने सर्पमित्र !

जब हम बने सर्पमित्र !
(डायरी 2 sep 2017)
 दोपहर 1.30 बजे स्कूल से लौटी। बिल्डिंग के नीचे पार्किंग एरिया दोपहर के वक्त खाली होता है, वहीं से गुजरकर लिफ्ट की ओर बढ़ते समय पाया कि 12 से 15 वर्ष के चार लड़के एक कोने को घेरकर बड़े ध्यान से कुछ देख रहे हैं।

उत्सुकतावश वहाँ जाकर देखा तो पाया कि बच्चों ने कोने में दीवार का आधार लेकर दो साइकिल लगा रखी थीं और उनके पीछे ठीक कोने में साँप !
साँप गोलमटोल गठरी सा होकर कोने में पड़े पत्थर के पास गहरी नींद का आनंद ले रहा था और बच्चे 'मार दिया जाय कि छोड़ दिया जाय, बोल तेरे साथ क्या सलूक किया जाय' वाली मुद्रा में चर्चा कर रहे थे।

मैंने बच्चों को दूर किया और वाचमैन को बुलाया। वाचमैन काका सीधे एक बड़ा सा पत्थर पटककर साँप का क्रियाकर्म कर देने के पक्ष में थे, मैं उसे पकड़कर कहीं दूर छोड़ देने के पक्ष में थी, लड़के मेरे पक्ष में हो गए थे। साँप जी हमारे इरादों से बेखबर स्वप्नलोक में खोए रहने के पक्ष में थे।

इस कॉलोनी को बने हुए अभी तीन वर्ष ही हुए हैं और मुझे यहाँ आए दो वर्ष। पाँच सात साल पहले तक इस जमीन पर घने पेड़ पौधे थे जिन्हें हटाकर यह बस्ती बसाई गई। साँप हर बारिश में निकलते रहते हैं यहाँ, पीछे का परिसर अब भी जंगल सा ही है।

वाचमैन ने कहा,"मैडम, अब तक पाँच मार चुके हैं हम! आपको क्या पता, आप तो सुबह जाते हो रात को लौटते हो।" मैं - "हाँ काका, मारे होंगे आपने पाँच पर ये तो मेरे सामने आ गया। मैं कोशिश करती हूँ कि कोई इसे पकड़कर दूर छोड़ दे।"

मैंने शैलेश सर को फोन किया जो क्लासेस में विज्ञान पढ़ाते हैं। शायद उनके पास किसी सर्पमित्र (snake rescuer) का नंबर हो। सर ने पाँच मिनट में ही एक सर्पमित्र का नंबर मैसेज किया। उसे फोन करने पर पता चला कि वह बाहर है और कल लौटेगा।

अब मैं क्या करूँ? साढ़े तीन बजे मुझे क्लासेस जाना था। उसके पहले खाना बनाना और खाना भी था। तभी मेरा बेटा अतुल कालेज से लौट आया। अब मेरे पक्ष में पाँच लोग हो गए।

इस बीच वहाँ से दो तीन महिलाएँ गुजरीं और वाचमैन को साँप मारने का निर्देश देकर चली गईं। साँप की प्रजाति पर भी अटकलें लगाईं गईं।
अब हमने स्वयं ही सर्पमित्र बनने का निश्चय कर लिया।

मैं साँप को अतुल के भरोसे छोड़कर घर गई और एक ढक्कन वाली बास्केट, एक कॉटन की चादर और एक झाड़ू लाई। उस वक्त यही समझ में आया।       
आसपास इतनी हलचल होने पर भी साँप का यूँ सोते रहना असामान्य बात थी। कहीं मरा हुआ तो नहीं? एक रिस्क ली। झाड़ू के पिछले डंडे से साँप को स्पर्श किया तो वह थोड़ा सा हिलकर फिर शांत हो गया, जैसे छोटे बच्चे माँ के जगाने पर 'उँहूँ ! अभी नहीं !' कहकर करवट बदलकर फिर सो जाते हैं।

तब तक अतुल ने वाचमैन का डंडा लिया।आसपास निरीक्षण करने पर एक धातु का तार पड़ा मिल गया। तार को मोड़कर हुक की तरह बनाकर डोरी से डंडे के सिरे पर बाँधा गया। तब तक लड़कों ने साँप के फोटो, वीडियो खींच लिए। वाचमैन 'ध्यान से, सावधानी से' कहता जा रहा था।

अतुल ने टोकरी को साँप के पास आड़ी पकड़कर हुक से साँप को झट से उठाकर टोकरी में डाल दिया और मेरे मुँह से सिर्फ इतना निकला - "अरे वाह !" टोकरी का ढक्कन तुरंत बंद कर दिया गया। टोकरी के हिलते ही साँप महाशय अपनी गहन निद्रा से जाग गए और पूरा शरीर खोलकर दिखाया - देखो, इतना भी छोटा नहीं मैं !

बंद टोकरी को पकड़कर एक लड़का अतुल के पीछे बाइक पर बैठा । वह नहीं जाता तो इस एडवेंचर के लिए मैं तैयार थी। साँपजी ने भी बाइक की सवारी का अनुभव पहली बार लिया होगा। कुछ ही देर में दोनों बच्चे साँप को नदी किनारे विदा कर आए जो यहाँ से 10 मिनट की ड्राइविंग पर ही है।

   घर लौटने पर मैंने अतुल से पूछा क्या उसे डर नहीं लगा ? तब उसका जवाब था कि बचपन में डिस्कवरी चैनल ज्यादा देखा था ना, इसलिए डर नहीं लगता।
मोगेम्बो (अतुल) खुश है साँप को 
पिंजरे में बंद करके !
गहरी नींद में 
बाइक की सवारी करते साँप महाशय

रविवार, 3 दिसंबर 2017

ढूँढ़े दिल !

अंजानों की इस बस्ती में,
कोई पहचाना ढूँढ़े दिल !
मंदिर-मंदिर,मस्जिद-मस्जिद,
यूँ रब का ठिकाना ढूँढ़े दिल !

तेरी गलियों में आ पहुँचा है
भटक-भटक कर दीवाना,
अब ज़ब्त नहीं होते आँसू,
रोने का बहाना ढूँढ़े दिल !

जन्मों की बातें रहने दो
कुछ और मुलाकातें दे दो,
इक जन्म में,सातों जन्मों के,
वादों का निभाना ढूँढ़े दिल !

हर शे'र पे आह निकलती थी
हर मिसरे पे बहते थे आँसू,
वो खूने ज़िगर से लिखी हुई,
गज़लों का जमाना ढूँढ़े दिल !

आँखों में नूर मुहब्बत का
साँसों में वफा की खुशबू हो,
इखलास हो लफ्जों में जिसके,
ऐसा दीवाना ढूँढ़े दिल !