मंगलवार, 26 जून 2018

तुम्हें खोजती हूँ...

अकेलेपन की 
दीवारों को टटोलती,
खोजती हूँ -

कोई ऐसी खिड़की
जिसमें से आती हो,
चिड़ियों की चूँ-चूँ
फूलों की खुशबू,
बारिश की बूँदों की
मीठी सी रिमझिम,
पत्तों से पानी
टपकने की टिपटिप,
माटी की खुशबू
नमी ओस की !!!

फिर खोजती हूँ -
वो छोटा झरोखा,
जिसमें से झाँके
अंबर का मुखड़ा,
सूरज की आँखें
बादल का चेहरा,
चंदा की साँसें
तारों की बातें,
हवा की हँसी !!!!

फिर खोजती हूँ -
कोई राह ऐसी,
निकलकर जहाँ से
पहुँच जाऊँ तुम तक,
सिमटकर तुम्हारे 
पहलू में रो लूँ,
करूँ सारे शिकवे
कहूँ सारी बातें,
जो अब तक कभी भी
कही ही नहीं !!!!

अकेलेपन की 
दीवारों को टटोलती,
तुम्हे खोजती हूँ ....



बुधवार, 13 जून 2018

आओ मेघा, बरसो ना !

पर्जन्य अप्सरा के नूपुर
झंकृत होने दो अब सस्वर,
अंबर भावुक - सा हो जाए
धाराएँ बरसें झर झर झर ।

इस मन की बंजर भूमि को
थोड़ा - सा उर्वर कर दो ना !
पार क्षितिज के कहाँ रुके हो,
आओ मेघा, बरसो ना !!!

दामिनी का हो अद्भुत नर्तन
शीतल बयार से सिहरे मन !
रिमझिम फुहार से भीगे तन,
भीगे हर तृण, भीगे कण-कण ।

मोती बिखरें उपवन कानन,
तरुओं को अलंकृत कर दो ना !
पार क्षितिज के कहाँ रुके हो,
आओ मेघा, बरसो ना !!!

इंद्रसैन्य - से दल के दल
गरजो,उमड़ो सुंदर श्यामल,
तुम रूप बदलते हो प्रतिपल,
रूई के फाहों से कोमल ।

सोए सपनों को झकझोरो
माटी को सोना कर दो ना !
पार क्षितिज के कहाँ रुके हो,
आओ मेघा, बरसो ना !!!

बिसरे गीतों के सारे स्वर
नदियों की घाटी में भरकर,
हर दिशा-दिशा से गूँजेंगे,
फिर राग प्रेम के मंद-मदिर ।

पर्वत शिखरों का आलिंगन
छोड़ो, धरती पर उतरो ना !
पार क्षितिज के कहाँ रुके हो,
आओ मेघा, बरसो ना !!!


गुरुवार, 7 जून 2018

व्यथा

*व्यथा* 

जीवन के पच्चीस वसंत
फुलवारी को गुलज़ार रखने में,
जीवन की पच्चीस बरसातें
आँगन को हरा रखने में,
जीवन के पच्चीस ग्रीष्म
चूल्हे की आग को जलाए रखने में,
जीवन की पच्चीस सर्दियाँ
सारे घर के वातावरण को
शीतल रखने में,
ना जाने कब गुजर गए !!!!

ना जाने कब बीत गया
एक सदी का चौथा हिस्सा...
उसके तन की फुलवारी 
और मन का खिला हुआ गुलाब
मुरझाता गया, पंखुड़ी-दर-पंखुड़ी !
विश्वास का पौधा सूखता चला गया...

टूटती साँसों को जोड़े रखने की 
जद्दोजहद में,
टपकते छ्प्पर से लेकर 
आलीशान घर तक की यात्रा में,
झुकी आँखों और घूँघट से लेकर
स्वाभिमान, सम्मान और
अपनी पसंद की पोशाक तक 
पहुँचने के सफर में उसने,
खुद को हमेशा ही अकेला पाया !!!!

गालों पर बहते आँसुओं को,
कानों में पिघले शीशे की तरह 
पड़ते अपशब्दों को,
घर से निकाल दिए जाने और
मार-पीट की धमकियों को,
सँजो-सँजोकर बंद करती गई वह
अपने हृदय के पैंडोरा बॉक्स में !!!!

अब बस, 
इतनी ही गुज़ारिश है उसकी...
इसे खोलने की कभी जिद ना करना,
पछताना पड़ेगा !!!!!

शनिवार, 2 जून 2018

कागा मोती चुन लेते हैं !

किसके लिलार लिखा,
जाति-पाँति, कुल, गोत्र,
किसके लिलार लिखा,
साधु है कि चोर है ?
देखकर चरित्र, बाँधो
मित्रता की डोर, यहाँ
झूठ का, दिखावे का,
छलावे का ही दौर है !!!

यदि पड़ जाए दरार,
होता आईना बेकार,
बिना शील के श्रृंगार,
कहो,कौनसे है काम का ?
कैसा प्रेम, कैसा प्यार,
सारा मतलबी व्यवहार,
छुरी बगल में छुपाएँ
और जपें नाम राम का !!!

बहुरुपियों की फौज,
यहाँ करती है मौज !
जैसा मौका,जैसा वक्त,
वैसा रूप धर लेते हैं। 
कहे 'मीना' तू सँभल,
ऐसे आग पर ना चल,
यहाँ हंस मरे भूखा,
कागा मोती चुन लेते हैं !!!

श्रृंगार

माँग भरी सेंदूर से,
टिकुली धरी लिलार।
अंजन आँजा लाज का,
पूरा हुआ श्रृंगार ।।

आईना अँखियाँ हुईं,
प्रिय-प्रतिबिंब समाय ।
हृदय हुआ बहुरुपिया,
स्वांग हजार रचाय ।।

ओठों पर कुछ और है,
नयनों में कुछ और । 
मन का ठाँव ना पूछिए,
पहुँचा प्रिय की ठौर ।।

पाती प्रिय के नाम की
कुरजां तू ले जाय । 
पथ जोवत अँखियाँ थकीं,
प्राण निकल ना जाय ।।
( कुरजां - एक पक्षी )