शनिवार, 29 जून 2019

तुम समय संग आगे निकलते गए....

तुम समय संग आगे निकलते गए,
मैं जहाँ थी वहीं पर खड़ी रह गई....
इतने ऊँचे हुए, आसमां हो गए,
मैं धरा थी, धरा हूँ, धरा ही रही !!!

रिक्त होती रही श्वास की गागरी
अर्घ्य देती रही अंजुरी-अंजुरी
छटपटाती रही बद्ध पंछी सी, पर
पार कर ना सकी देह की देहरी 
दंड सारे नियत थे मेरे ही लिए
मैं क्षमा थी, क्षमा हूँ, क्षमा ही रही !!!

तुम तो पाषाण से देवता हो गए
पूजने का भी हक, मुझको मिल ना सका,
कौन दर्शन करे, कौन पूजन करे
ये भी दुनिया के लोगों ने निश्चित किया
राम ने स्पर्श से, जिंदा तो कर दिया
पर अहिल्या शिला थी, शिला ही रही !!!

तुम समय संग आगे निकलते गए,
मैं जहाँ थी वहीं पर खड़ी रह गई....
इतने ऊँचे हुए, आसमां हो गए,
मैं धरा थी, धरा हूँ, धरा ही रही !!!





2 टिप्‍पणियां:

  1. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  2. बहुत सुन्दर !
    अच्छा हुआ कि वह छली निर्मोही साथ छोड़ गया वरना भोली-भाली और पवित्र वह प्रेयसी भी उसकी तरह स्वार्थी और संवेदनहीन हो जाती.

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