बुधवार, 8 अप्रैल 2020

क्या वतन से रिश्ता कुछ भी नहीं ?

धर्म से रिश्ता सब कुछ है,क्या वतन से रिश्ता कुछ भी नहीं?
ओ भाई मेरे,ओ बंधु मेरे,क्या अमन से रिश्ता कुछ भी नहीं?

जिस माटी में तुम जन्मे, खेले-खाए और पले - बढ़े
उस माटी से गद्दारी क्यों, ये कैसी जिद पर आज अड़े ?
क्या अक्ल गई मारी तेरी, किसके बहकावे में बिगड़े,
जी पाओगे अपने दम पर, क्या आपस में करके झगड़े?
क्यूँ समझाना बेकार हुआ, क्यूँ शत्रु हुए मानवता के?
क्यूँ वतनपरस्ती भूल गए, क्या यही सिखाया मजहब ने?

शाख से ही रिश्ता है क्या, इस चमन से रिश्ता कुछ भी नहीं?
धर्म से रिश्ता सब कुछ है और वतन से रिश्ता कुछ भी नहीं?

क्यों छेद कर रहे उसमें ही, जिस थाली में तुम खाते हो?
जो हाथ तुम्हारे रक्षक हैं, उनको ही तोड़ने जाते हो ?
हम एक रहें और नेक रहें, क्या यह मानव का फर्ज़ नहीं?
यह धरती तेरी भी माँ है, माँ का तुझ पर कोई कर्ज नहीं?
नफरत से नफरत बढ़ती है, क्यों आग लगाने को निकले?
इक सड़ी सोच को लेकर क्यों, ईमान मिटाने को निकले?

क्या तेरी नजर में भाई मेरे, इंसान से रिश्ता कुछ भी नहीं?
धर्म से रिश्ता सब कुछ है और वतन से रिश्ता कुछ भी नहीं?