सोमवार, 31 अक्तूबर 2016

पापा,आपने कहा था....



पापा, आपने कहा था....
पापा,
आपने कहा था ,
बिटिया तो चिड़िया होती है...

उड़ जाती है एक दिन,
अपना नया घर बसाने के लिए ।
छोड़ जाना होता है उसे,
अपनों को ।

पापा,
आपने शायद
सच नहीं कहा था...

चिड़िया तो चहचहाती है,
मनचाहे गीत सुनाती है ।
बिना किसी अनुमति के गाती है,
कभी भी, कहीं भी ।

पापा,
आपने सच क्यों नहीं कहा..?

मैं यदि चिड़िया होती,
तो अभी उड़ आती आपके पास ।
यहाँ गाना-चहचहाना तो दूर,
हल्की सी चूँ-चूँ पर भी,
कितनी हैं बंदिशें ।

पापा,
आपने शायद ऐसा
इसीलिए कहा होगा कि
भेज सकें मुझे खुद से दूर...

समझाया होगा अपने ही मन को,
मुझे समझाने के बहाने ।
चिड़िया तो खुश ही रहती है,
मेरी बिटिया भी खुश रहेगी ।
यही ना ?

पापा,
आपकी चिड़िया खुश है ।
पापा की चिड़िया
खुश है.
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गुरुवार, 27 अक्तूबर 2016

सिया के राम


सिया  के राम


वनगमन सिया का सबने देखा,
अश्रू राम के किसने देखे ?
बोले राम, प्रिया तुम बिन
जीवन के सब दिन गए अलेखे ।

भिन्न शरीर हमारे लेकिन
इक दूजे से एकरूप हम
सिया राम से, राम सिया से
अलग कहाँ जी पाते इक क्षण ?

मुझ पर राज्यपिपासु होने का
लगा हुआ अब तक आरोप,
वन भेजा तुमको मैंने
क्या मुझे नहीं था इसका क्षोभ ?

कलियुग में भी कई राम हैं
और कई सीताएँ हैं,
कर्तव्यों से बँधे हुए सब
सबकी अपनी गाथाएँ हैं !

इस धरती के सारे मानव
चाहे मुझको दे लें दोष ,
क्षमा माँगता हूँ मैं तुमसे
तुम मुझ पर ना करना रोष ।
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दीपावली


दीपावली
आसमाँ ने तारों के
दीप जलाए हैं,
धरती पर भी मानो
सितारे जगमगाए हैं ।

दीपावली की रात
कितनी अनोखी है,
आसमाँ और धरती
दोनों मुस्कुराए हैं ।

नन्हें - नन्हें माटी के
दीप हुए रोशन,
मानो प्रकाशदूत
धरती पर आए हैं ।

दीपकों की सेना है
शस्त्र है उजाले का,
इनके आगे अँधियारा
टिक नहीं पाए है ।

घर हुए जगमग
रोशन हुए गलियारे,
मन भी उमंगों की
रांगोली सजाए है ।

मीठे बोलों से मीठा
कोई उपहार नहीं,
पर्व यह प्रकाश का
हमको सिखाए है ।
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( चित्र गूगल से साभार )

बुधवार, 19 अक्तूबर 2016

नन्हीं बुलबुल


नन्हीं बुलबुल

मेरे घर  की बालकनी  में बुलबुल ने घोंसला बनाया । ये मेरे लिये अनोखी बात थी । एक नया अनुभव था । 15-20 दिन लगातर काम करके , एक एक तिनका लाकर वह घोंसला बनाती । मैं उसकी कड़ी मेहनत की साक्षीदार थी । घोंसला अब एक छोटी सी टोकरी का आकार ले चुका  था। कभी कभी वो जोड़ी में आते थे । लेकिन अक्सर उनमें से एक ही आता था। मेरी  उत्सुकता बढ़ती जा रही थी आखिर कब देगी वो
अंडे ? कैसे होंगे बुलबुल के बच्चे ?  

 लेकिन रामनवमी के दिन सुबह सुबह बालकनी से कौवे की आवाज़ आई । मैं दौड़ी । पर कौवा पूरे घोंसले कौ चोंच में उठाये उड़ गया । दो दिन तक बेचारी बुलबुल बालकनी में चक्कर काटती रही । घोंसले को आधार देने के लिये  एक झूला सा बनाया था , उसी के पास आती फ़िर उड़ जाती।
बाद में उसने आना बंद कर दिया। मैं खुद को कोसती । दूसरी बालकनी में पक्षियों के लिये पानी ना रखती तो शायद कौवा नहीँ आता ।
                                             
  दोस्तों, कहानी अभी पूरी नहीँ हुई है । कल से  वो दोनो फ़िर आये हैं । फ़िर वहीं पर  घोंसला बना रहे हैं और हम इंसानों को जीने का ढंग सिखा रहे हैं ।

रविवार, 16 अक्तूबर 2016

कहता होगा चाँद


कहता होगा चाँद

जब बात मेरी तेरे कानों में कहता होगा चाँद
इस दुनिया के कितने ताने, सहता होगा चाँद...

कभी साथ में हमने-तुमने उसको जी भर देखा था
आज साथ में हमको, देखा करता होगा चाँद...

यही सोचकर बड़ी देर झोली फैलाए खड़ी रही
पीले पत्ते सा अब, नीचे गिरता होगा चाँद...

अँबवा की डाली के पीछे, बादल के उस टुकड़े में
छुप्पा-छुप्पी क्यों बच्चों सी, करता होगा चाँद...

मेरे जैसा कोई पागल, बंद ना कर ले मुट्ठी में
यही सोचकर दूर-दूर, यूँ रहता होगा चाँद...
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शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2016

माफ करना वीर मेरे !


माफ करना वीर मेरे !

माफ करना वीर मेरे !
मैं तुम्हें ना दे सकी...
श्रद्धांजलि !

हर तरफ था जिक्र तेरे शौर्य का !
हर जुबाँ पर थी,
तेरी कुर्बानियों की दास्ताँ !
वीर मेरे ! रो रहे थे नैन कितने...
दिल भी सबके रो रहे थे !

देखती पढती रही मैं
वीरता की हर कहानी, 
जिसमें तुम थे !
नमन - वंदन क्या मैं कहती, 
शब्द कम थे !
वीर मेरे ! कोई उपमा ना मिली !

माफ करना वीर मेरे !
मैं तुम्हे ना दे सकी...
श्रद्धांजलि !

है मेरा भी लाल कोई
जैसे तुम थे माँ के अपनी...
बस उसी के अक्स को
तेरी जगह रखा था मैंने !

हाँ, उसी पल से...तभी से...
रुह मेरी सुन्न है और 
काँपते हैं हाथ मेरे !
शब्द मेरे रो पड़े और 
रुक गई मेरी कलम भी !
वीर मेरे ! अश्रुधारा बह चली...

माफ करना वीर मेरे !
मैं तुम्हें ना दे सकी...
श्रद्धांजलि ! श्रद्धांजलि !
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