मंगलवार, 21 फ़रवरी 2017

जीवन - घट रिसता जाए है...

जीवन-घट रिसता जाए है...
काल गिने है क्षण-क्षण को,
वह पल-पल लिखता जाए है...
जीवन-घट रिसता जाए है ।

इस घट में ही कालकूट विष,
अमृत है इस घट में ही,
विष-अमृत जीवन के दुःख-सुख,
मंजिल है मरघट में ही !
जाने कितने हैं पड़ाव,
जिन पर मन रुकता जाए है...
जीवन घट रिसता जाए है ।

कभी किसी की खातिर भैया,
रुकता नहीं समय का पहिया,
चलती जाती जीवन नैया,
इस नैया का कौन खिवैया ?
बैठ इसी नैया में हर जन,
कहाँ पहुँचता जाए है ?
जीवन घट रिसता जाए है ।

युगों-युगों से रीत यही है,
जीना है आखिर मरने को,
जन्म नवीन, नया नाटक है,
नई भूमिका फिर करने को !
अगला अंक लिखे कोई तो,
पिछला मिटता जाए है....
जीवन - घट रिसता जाए है !
जीवन - घट रिसता जाए है ।।

रविवार, 19 फ़रवरी 2017

आधा चंद्र

आज गगन में,
आधा चंदा निकला है,
टूट के आधा,
कहाँ गिर गया रस्ते में ?

गिरते गिरते अटक गया,
या कहीं रास्ता भटक गया?
चलो पार्क में देखें हम,
क्या किसी पेड़ पर लटक गया ?

अगर किसी ने कैद कर लिया,
पूनम कैसे आएगी,
रात अधूरे चंदा से,
कितने दिन काम चलाएगी ?

ढूँढ़ ढूँढ़ कर हारे हम,
पहुँचे नदी किनारे हम !
पानी में कुछ चमक रहा था,
हीरे सा वह दमक रहा था ।

वही चाँद का आधा टुकड़ा,
जो आधे चंदा से बिछड़ा,
पानी में छप - छप करता था,
हिरन कुलाँचें ज्यों भरता था !

जब यह वापस जाएगा नभ,
चंद्र पूर्णता पाएगा तब ,
फिर से पूनम आएगी,
रात दुल्हन बन जाएगी !!!

गुरुवार, 16 फ़रवरी 2017

कन्हैया

तेरी कृपा का अनुभव.
हर बार हुआ मुझको,
बिन देखे तुझे, तुझसे
अब प्यार हुआ मुझको....

मैंने ये जब भी समझा
तू पास नहीं मेरे,
मेरे ही दिल में तेरा
दीदार हुआ मुझको...

ठुकराए ये जमाना
परवाह नहीं मुझको
तेरे प्यार पर कन्हैया
ऐतबार हुआ मुझको...

तेरी कृपा के आगे
है शून्य हर खजाना,
तिनके सा तुच्छ मोहन,
संसार हुआ मुझको....

तेरी दया ही तेरा,
इजहार-ए-मोहबत
अब दूर तुमसे रहना
दुश्वार हुआ मुझको...

तेरी कृपा का अनुभव
हर बार हुआ मुझको ।।

शनिवार, 11 फ़रवरी 2017

बचपना

बचपना

कभी कभी यूँ लगता है....
मैं एक चिड़िया होती,
सुबह जगाती आपको,
चूँ चूँ करके दाने माँगती,
खिड़की से आकर,
बैठ जाती आपकी टेबल पर !
लिखते जब कुछ आप,
मैं निहारती चुपचाप !

कभी कभी यूँ लगता है....
मैं चाबी वाली गुड़िया होती,
चाबी अपने में भर लेती,
आपके पीछे पीछे घूमती,
सारे घर में !
नीले मोतियों सी आँखों से
कह देती हर बात !

कभी कभी यूँ लगता है....
मैं हवा होती,
छूकर हौले से जाती,
हलकी थपकियाँ दे सुलाती !
कभी आप लिखते और....
मैं सारे पन्ने उड़ा देती,
मजा आता ना !

कभी कभी यूँ लगता है....
मैं बदली होती,
बरसती उसी दिन,
जब निकलते आप,
बिन छाते के घर से !
कर देती सराबोर,
नेह जल से !

और जब मैं ये सब करती,
पता है, आप क्या कहते ?
आप कहते ----
"ये क्या बचपना है ?"
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