शनिवार, 23 सितंबर 2017

बस, यूँ ही....

नौकरी, घर, रिश्तों का ट्रैफिक लगा, 
ज़िंदगी की ट्रेन छूटी, बस यूँ ही !!!

है दिवाली पास, जैसे ही सुना,
चरमराई खाट टूटी, बस यूँ ही !!!

डगमगाया फिर बजट इस माह का,
हँस पड़ी फिर आस झूठी, बस यूँ ही !!!

साँझ की गोरी हथेली पर बनी,
सुर्ख रंग की बेलबूटी, बस यूँ ही !!!

झोंपड़ी में चाँदनी रिसती रही,
चाँद कुढ़ता बाँध मुट्ठी, बस यूँ ही !!!

एक दीपक रात भर जलता रहा,
तमस की तकदीर फूटी, बस यूँ ही !!!

राह तक पापा की, बिटिया सो गई,
रोई-रोई, रूठी-रूठी, बस यूँ ही !!!




रविवार, 17 सितंबर 2017

स्पंदन - विहीन !

ओ रंगीले भ्रमर !
कैसे स्वागत करती तुम्हारा ?
लाख कोशिशों से भी मुझे,
कुमुदिनी बनना न आ सका !
कंटकों के बीच जन्मी
कुसुम कलिका तो थी मैं,

किंतु.....
नागफनी का पुष्प बनकर
खिलना भी कोई खिलना है ?
गंध - मरंद विहीन !!!

ओ मेरे हृदय !
नहीं सीख पाई मैं,
तुम्हारी धड़कन बनकर गूँजना !
साँसों में समाकर, रक्त में घुलकर,
तुमको छूकर निकलती रही,
क्षण प्रतिक्षण !!!

किंतु......
गीत ना बन सकी धड़कनों का !
खामोश साँसों का
संगीत भी कोई संगीत है ?
प्रतिध्वनि विहीन !!!

ओ मेरे कवि !
नहीं बन पाई मैं,
तुम्हारी प्रेरणा, आराधना !
मैं तुम्हारी कलम की स्याही बन
थामती, सँभालती रही तुम्हारी,
भावनाओं के ज्वार को !!!

किंतु.....
स्थान मेरा सदा ही,
तुम्हारी नजरों के दायरे में रहा,
मन मस्तिष्क में नहीं !
बेजान अहसासों के साथ,
जीना भी कोई जीना है ?
स्पंदन विहीन !!!












शुक्रवार, 15 सितंबर 2017

अबूझे प्रश्न


मैंने नजर उठाकर देखा,
जब भी अपने चारों ओर...
स्वार्थ, ईर्ष्या औ' लालच का,
पाया कहीं ओर ना छोर ।

सहते रहते क्यों हर पीड़ा 

मूक, मौन, निष्पाप ह्रदय ?
किन पापों की सजा भुगतते,
निष्कपटी, निर्दोष, सदय ?

क्यों लगता है मुझको ऐसा,

सारी खुशियाँ हैं झूठी,
खिलने के पहले ही आखिर,
क्यों इतनी कलियाँ टूटीं ?

क्यों गुलाब को ही मिलता है,

हरदम काँटों का उपहार ?
क्यों रहता है कमल हमेशा,
कीचड़ में खिलने, तैयार ?

क्यों लगते हैं नकली, सारे

रिश्ते नातों के बंधन ?
इस जीवन - सागर के तट पर,
क्यों एकाकी मेरा मन ?

मन चंचल, उत्सुक बच्चे सा,
तंग करे हर पल मुझको,
निशि दिन करता है प्रश्न नए,
बोलो क्या उत्तर दूँ उसको ?

गुरुवार, 14 सितंबर 2017

हिंदी का क्या है !


वाणी पिछले बारह वर्षों से एक अंग्रेजी माध्यम के प्राइवेट स्कूल में बतौर हिंदी शिक्षिका कार्यरत थी।
वाणी हिंदी में एम ए थी, वो भी विशेष योग्यता के अंकों के साथ, किंतु स्कूल में हिंदी पढ़ाते समय उसे अनेक कटु अनुभवों से दो चार होना पड़ा । उसने पाया कि ना हिंदी का कोई सम्मान है और ना हिंदी शिक्षिका का ।

कई बार तो उसने पाया कि हिंदी के घंटे में पिछ्ली बेंचों पर विद्यार्थी गणित, अंग्रेजी या विज्ञान का काम करते रहते थे । हिंदी का क्या है, आसान तो है, परीक्षा के समय पढ़ लेंगे तो भी बहुत है, यह विचार बच्चों के मन में घर कर चुका था। वाणी ने यह भी पाया कि बच्चों के अभिभावक भी हिंदी की पढ़ाई के प्रति लापरवाह थे ।

हिंदी में बच्चों की लिखावट पर भी निचली कक्षाओं से ही ध्यान नहीं दिया था किसी ने । मात्राओं और व्याकरण की अशुध्दियाँ तो आम बात थी। केवल गिने चुने विद्यार्थी ही थे जो हिंदी को अन्य विषयों की तरह गंभीरता से लेते थे हालांकि उद्देश्य उनका भी एक ही था - कुछ प्रतिशत अंक ज्यादा पा लेना।

.......वाणी भी कितना करती ? आठवीं कक्षा तक नई शिक्षानीति की मेहरबानी से उत्तीर्ण होते आए विद्यार्थी जब उसे नवीं या दसवीं में मिलते, तो उनकी हालत देख वह सिर पकड़ लेती । कइयों को ठीक से पढ़ना नहीं आता, स्वर और व्यंजन तक का ज्ञान नहीं होता ।

खैर, अपनी कड़ी मेहनत और बालकों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण अपनत्व से वाणी हिंदी विषय और हिंदी साहित्य में विद्यार्थियों की रुचि जगाने में सफल रही थी। अंग्रेजी माध्यम के विद्यार्थी थे इसलिए उन्हें जितना हो सके, सरल शब्दों में समझाती । हिंदी की कविताएँ गाकर सुनाती ताकि बच्चों को हिंदी से लगाव हो जाए। हिंदी की पाठ्येतर पुस्तकें पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करती । हिंदी से संबंधित अनेक स्पर्धाओं में अपने छात्र छात्राओं को अव्वल आते देख वह फूली नहीं समाती थी।

बारह वर्ष बीत गए। अब वाणी स्कूल में हिंदी की विभागाध्यक्ष थी। इस वर्ष हिंदी दिवस को विशेष तौर से मनाने की योजना उसने तैयार कर रखी थी। प्रधानाध्यापकजी से अनुमति भी ले ली थी। बच्चों से तैयारी भी शुरू करवा दी थी । 13 सितंबर को आधी छुट्टी के बाद चपरासी आया, "मैम, प्रिंसिपल सर ने आपको बुलाया है।"
अगला पीरियड खाली था तो वाणी प्रिंसिपल के कार्यालय में जा पहुँची । प्रिंसिपलजी ने उसे बैठने का आदेश दिया और धीर गंभीर आवाज में बोले-
"वाणी, कल का कार्यकम रद्द कर दो।"
वाणी पर तो मानो बिजली गिर पड़ी। उसने थोड़ा नाराजी भरे स्वर में कहा, " लेकिन सर, बच्चे सारी तैयारी कर चुके हैं ।"
प्रिंसिपल - "हाँ, तो उनकी तैयारी व्यर्थ तो नहीं जाएगी। किसी और स्पर्धा में काम आ जाएगी। कल मैनेजमेंट के लोग आ रहे हैं । स्कूल का मुआयना और टीचर्स के साथ मीटिंग करना चाहते हैं। मैं भी व्यस्त रहूँगा ।"
वाणी क्या कहती ? हालांकि कहना तो बहुत कुछ चाहती थी पर जानती थी कि प्रिंसिपल मैनेजमेंट को जवाब नहीं दे सकते । उनकी मजबूरी है।
अगले दिन 14 सितंबर था। वाणी ने अपनी कक्षा में ही छोटी सी निबंध स्पर्धा आयोजित कर ली । अन्य छात्रों को समझा-बुझाकर लौटा दिया।
पाठशाला की छुट्टी के बाद सभी शिक्षकों को सभागृह में रुकना था, मीटिंग के लिए । मैनेजमेंट के प्रतिनिधि बोलने के लिए खड़े हुए । सामान्य बातों के बाद उन्होंने कहा -
The agenda of today's meeting is to discuss about encouraging our students to speak in English. It is very sad that most of the times our teachers also speak in Hindi. How will the students develop habit of speaking in English ? Ours is an English medium school. I want that from today itself, all of us should start speaking in English, at least in the school premises. No other language. I hope you.........

आगे ना जाने क्या क्या कहा उन्होंने..... वाणी ने कुछ नहीं सुना । उसके कानों में उसके प्रिय गीत की पंक्तियाँ गूँज रही थीं -
                  हिंदी हैं हम वतन है, हिंदोस्तां हमारा....

......और उसकी आँखें हिंदी दिवस और हिंदी से जुड़े अपने सपनों को चकनाचूर होते देख रही थीं...... सोच रही थी वह कि आखिर कौन जिम्मेदार है नई पीढ़ी की इस सोच के लिए कि - हिंदी का क्या है !!!

शनिवार, 9 सितंबर 2017

अंधेर नगरी, चौपट राजा !

अंधेर नगरी, चौपट राजा !
टका सेर भाजी, टका सेर खाजा !

राजा पर कोई, अँगुली उठाए,
अँगुली क्या, गर्दन अपनी कटाए !
पंगु व्यवस्था है, अंधा कानून
रोम जले, नीरो बाँसुरी बजाए !

श्वापदों से क्रूरतम, अब मनुष्य हो गया,
सत्य और अहिंसा की, चिताएँ सजा जा ।।
अंधेर नगरी, चौपट राजा !

रामजी के देश में, रावणों का राज
बर्बरता, निष्ठुरता, दमन का रिवाज !
मुँह पर बाँधो पट्टी, बोलो इशारों में
गंध लहू की पसरी, गलियों बाजारों में !

नीच,बोल बोल रहे, ठोंक ठोंक छाती !
लज्जा का चीरहरण, तू भी करवा जा ।।
अंधेर नगरी, चौपट राजा !

आजादी की दुल्हन ने, फाँसी लगाई
धर्म औ' सियासत की, हो गई सगाई !
बेबाक दीवानों को, अक्ल नहीं आई
बोलने की कीमत, रक्त से चुकाई !

झूठी संवेदना की,चाह नहीं रूहों को,
फिर भी श्रद्धांजलि की, रस्म तो निभा जा ।।
अंधेर नगरी, चौपट राजा !

गुरुवार, 7 सितंबर 2017

चलो, खिल्ली उड़ाएँ

चलो हम खिल्ली उड़ाएँ,
लोग जो अच्छे हैं,सच्चे हैं,
सरल हैं, सीधे हैं,
देश की जो सोचते हैं,
भाईचारा पोसते हैं,
उन्हें धमकाएँ, डराएँ !!!
हम मजाक उनका बनाएँ !!!

वे युवक,जो नहीं करते
नकल पश्चिम सभ्यता की,
वे युवतियाँ, जो नहीं करती
तमाशा असभ्यता का,
आज भी रखें बड़ों का मान,
मर्यादा रखें छोटों की जो !
चलो उनको बरगलाएँ
उनकी हम खिल्ली उड़ाएँ !!!

जो ना लें रिश्वत, नहीं हों
लिप्त भ्रष्टाचार में,
जो करें विश्वास,
नेकी, दया, सदाचार में.
खरी सच्ची बात कह दें,
बिन डरे और बिन झुके
दिन को दिन और
रात को जो रात कह दें
मार्ग से उनको हटाएँ !!!

चलो, हम खिल्ली उड़ाएँ !!!



सोमवार, 4 सितंबर 2017

अध्यापक, शिक्षक या टीचर ?

ओ एकांत कुटी-चर !
तू टीचर बनकर कहाँ आ गया !
वन के पशु भी सजग रहे,
पर तू ही धोखा यहाँ खा गया !

तू वशिष्ठ था जिन्हें, राम भी,
कर प्रणाम, सौभाग्य समझते !
सांदीपन की समिधा लाते,
कृष्ण सुदामा मेह बरसते !
यदि चाणक्य नहीं होते तो,
चंद्रगुप्त को कौन जानता ?
खो आया सम्मान कहाँ, वह
जिसको तेरे नैन तरसते !!!
अरे ! चंद चाँदी के टुकड़ों,
पर जीना क्यों तुझे भा गया ?
ओ एकांत कुटीचर !
तू टीचर बनकर कहाँ आ गया !

जिस समाज में रहने आया
वह तो तेरे योग्य नहीं था,
अब तू उसके योग्य नहीं है
यह विडंबना दुःखद नहीं क्या ?
देख पराई चुपड़ी को तू,
क्यों अपना जी ललचाता है ?
अरे, भूल पर भूल ना करना,
रह पाएगा तू ना कहीं का !!!
रक्षा कर लो उस गुरुत्व की,
जिसे विश्व में देश पा गया !
ओ एकांत कुटीचर !
तू टीचर बनकर कहाँ आ गया !

साहस रख, प्रत्येक परिस्थिति,
स्थाई कभी न रहे, ना रही है !
आज राष्ट्र की बागडोर,
अध्यापक के हाथों में ही है !
भूल गए वो यदि अपना,
पूर्व रूप, तो भी चिंता क्या ?
नया वर्ग निर्माण, यह भी
ध्रुव सी अविचल,बात नहीं क्या ?
शिक्षक वर्ग कहेगा- 'शिक्षक व्यर्थ नहीं'
कुछ यहाँ रह गया !
ओ एकांत कुटीचर !
तू टीचर बनकर कहाँ आ गया ?
( कुटी-चर = कुटिया का वासी )
***********************

यह कविता मेरी रचना नहीं है। मेरी एक छात्रा वंदना शर्मा ने मुझे यह कविता कुछ वर्षों पहले दी थी। 'शिक्षक दिवस' के अवसर पर मेरे संकलन से आज यह सुंदर कविता आप सभी के पठन हेतु प्रस्तुत है......

शनिवार, 2 सितंबर 2017

शब्द

मानव की अनमोल धरोहर
ईश्वर का अनुपम उपहार,
जीवन के खामोश साज पर
सुर संगीत सजाते शब्द !!!

अनजाने भावों से मिलकर
त्वरित मित्रता कर लेते,
और कभी परिचित पीड़ा के
दुश्मन से हो जाते शब्द !!!

चुभते हैं कटार से गहरे
जब कटाक्ष का रूप धरें,
चिंगारी से बढ़ते बढ़ते
अग्निशिखा हो जाते शब्द !!!

कभी भौंकते औ' मिमियाते
कभी गरजते, गुर्राते !
पशु का अंश मनुज में कितना
इसको भी दर्शाते शब्द !!!

रूदन,बिलखना और सिसकना
दृश्यमान होता इनमें,
हँसना, मुस्काना, हरषाना
सब साझा कर जाते शब्द !!!

शब्द जख्म और शब्द दवा,
शब्द युद्ध और शब्द बुद्ध !
शब्दों में वह शक्ति भरी, जो
श्रोता को कर दे निःशब्द !!!

बिन पंखों के पंछी हैं ये
मन-पिंजरे में रहते कैद,
मुक्त हुए तो लौट ना पाएँ
कहाँ-कहाँ उड़ जाते शब्द !!!

शुक्रवार, 1 सितंबर 2017

हद हो गई !

हमने इक पत्थर उठा, मंदिर में मन के रख लिया,
लोग कहते हैं हमारे, प्यार की हद हो गई....

आँख मूँदे, हाथ थामे, साथ तेरे  चल पड़े
अजनबी एक शख्स पर, ऐतबार की हद हो गई...

हाँ, कि दिल जलता है ग़र तुम दूसरों को देख लो
ये तुम्हारे पर मेरे इख़्तियार की हद हो गई...

देखकर हमको, तेरा वो मुँह घुमा लेना सनम !
बेरुखी तेरी, दिले - बेज़ार की हद हो गई....

जिस्म की मंडी लगी, रूहों का सौदा हो गया,
जब मोहब्बत बिक गई, व्यापार की हद हो गई....

राह तकता रह गया था, चाँद की कोई चकोर
वो अमावस रात थी, इंतज़ार की हद हो गई....