शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2021

तलाश

दिन पर दिन बढ़ती जा रही है

दिनभर की भाग दौड़,

कुछ उम्र, कुछ जिम्मेदारियों 

और कुछ सेहत के

तकाजों का जवाब देते-देते,

पस्त हो जाता है शरीर और मन,

दिन भर !!!

कभी तितलियों और पंछियों को

निहारते रहने वाली निगाहें,

अब दिनभर,

मोबाइल और लैपटॉप से जूझतीं हैं,

ऑनलाइन रहती हैं निगाहें दिन भर,

और मन रहता है ऑफलाइन।

बगिया के पौधों को दिन में कई कई बार

सहलानेवाले हाथ,

अब जीवन संघर्ष की उलझी डोर को 

सुलझाते-सुलझाते दुखने लगे हैं।

दिन तो गुजर जाता है

पर जब रात गहराती है, 

मन की सुनसान वीथियों में

तुम्हारा हाथ पकड़कर चल देते हैं

मेरे मनोभाव,

उस छोटे से कोने की तलाश में,

जहाँ चिर विश्रांति मिल सके।

सुनो, एक सवाल पूछना है।

इस तलाश का अंत कब होगा?


सोमवार, 16 अगस्त 2021

कितनी यादें दे जाते हैं !

लोग पुराने जब जाते हैं,

कितनी यादें दे जाते हैं !

कसमें भी कुछ काम ना आतीं,

वादे भी सब रह जाते हैं !


पीपल के पत्तों के भी

पीले होने की रुत होती है,

पर मानव के साथी क्यूँकर

बेरुत छोड़ चले जाते हैं ?

लोग पुराने जब जाते हैं,

कितनी यादें दे जाते हैं !


यादें बरगद के मूलों सी

मीलों फैलें हृदय धरा में,

संग साथ के वे सीमित क्षण

बिछड़, अपरिमित हो जाते हैं !

लोग पुराने जब जाते हैं

कितनी यादें दे जाते हैं।


सूखी - सूखी नयन नदी पर

बरस पड़ें जब घन भावों के,

सजल, सघन, संचित बूँदों से

तब तट युग्म नमी पाते हैं। 

लोग पुराने जब जाते हैं

कितनी यादें दे जाते हैं !


कभी गोद में हमको लेकर 

जॊ दिखलाते  चंदा मामा !

हमें बिलखता छोड़, गगन के

तारे वे क्यों बन जाते हैं ?

लोग पुराने जब जाते हैं

कितनी यादें दे जाते हैं।

विशेष : इस कविता का पहला छंद ना जाने क्यों कल सुबह से मन में घुमड़ता रहा था। विचार भी आया, ये कैसी पंक्तियाँ आ रही हैं मन में ? अजीब सी बेचैनी भी थी दिलो दिमाग में। फिर सोचा कि कल रात देखे गए एक भावुक व्लॉग (vlog) का असर होगा, जिसमें शहर के वासी को बरसों बाद गाँव लौटने पर पता चलता है कि उसके गाँव के कुछ पुराने लोग, कुछ साथी अब नहीं रहे। 

खैर, मैंने दोपहर में करीब एक बजे पंक्तियों को लिख लेने का सोचा। दूसरा छंद पूरा हुआ कि मम्मी का फोन आया। मेरी मुँहबोले भाई की धर्मपत्नी, जिन्हें पच्चीस साल से लगातार राखी बाँधती रही हूँ मैं, वे अस्पताल में वेंटिलेटर पर हैं। शायद एकाध घंटा और निकालें। मैं स्तब्ध रह गई। भाभी उम्र में मेरी मम्मी से दो तीन साल ही छोटी थीं। मुझे तो गोद में खिलाया है। बड़ा आत्मीय रिश्ता है उनसे।

बेसब्र होकर उनकी बहू को फोन किया। वह रोते रोते बोली कि दीदी, माँ अभी अभी चली गईं। 

कविता के अंतिम दो छंद आँखों से झरते अश्रुओं के साथ पाँच मिनट में उतर आए। दिल से दिल के ऐसे रिश्तों के जुड़ाव और बिछोह को छठी इंद्रीय ने  अनेक बार महसूस किया और चेताया है। परंतु इस रूप में पहली बार चेताया है।












रविवार, 11 जुलाई 2021

मन तू, हो जा रे, अंतर्मुखी !

 मन तू, हो जा रे, अंतर्मुखी !

भागेगा बाहर तो होगा दुःखी !

मन तू, हो जा रे, अंतर्मुखी !


ये माया के मेले, झंझट झमेले

यूँ ही चलेंगे रे ! चलते रहेंगे ।

कितना तू रोकेगा, तेरे ही अपने

तुझको छलेंगे रे ! छलते रहेंगे । 

ना सुधरेगा कोई, ना बदलेगा कोई,

जग से लड़ाई बहुत हो चुकी। 

मन तू, हो जा रे, अंतर्मुखी !


नदिया के जैसे, तू तृष्णा को हर ले

बादल के जैसे, अहं रिक्त कर ले !

फूलों के जैसे, तू महका दे परिसर

वृक्षों के जैसे, स्थितप्रज्ञ बन ले !

तू अब मौन हो जा, मनन में तू खो जा,

प्रभु से लगा के लौ, हो जा सुखी !

मन तू, हो जा रे, अंतर्मुखी !!!


सृजक ने बनाए, घरौंदे सजाए

ये यूँ ही उजड़ते औ' बसते रहेंगे ।

कभी काल के फंदे ढीले भी होंगे

कभी पाश अपना ये कसते रहेंगे ।

जग की ये गाड़ी, चलती रहेगी

ना ये रुकेगी, ना ये रुकी !

मन तू, हो जा रे, अंतर्मुखी !!!




सोमवार, 5 जुलाई 2021

ये चाँद बरफ के टुकड़े - सा

बेबस अहसासों की रुत है,

मौसम है भीगी आँखों का ।

बहके - बहके जज्बातों में

मन जाने कैसे सँभलता है।


अँखियों की सरहद से बाहर

क्या मोल है कोई सपनों का ?

जब तक आँखों में रहता है,

हर सपना अपना लगता है। 


दिल की हथकड़ियाँ खोल भी दो,

आजाद करो अल्फ़ाज़ों को ।

दम घुटता है अरमानों का

औ' उम्र का सूरज ढलता है। 


ना सुर्ख गुलाबों के तोहफे

ना ही महके - महके रुक्के,

ना कसमें,ना वादे,ना शिकवे गिले

वो इश्क इसी को कहता है।


जब फूल मुहब्बत के फूलें,

महसूस हो खुशबू रूहानी ।

तब इत्र में डूबे गीतों का

उपहार किसी को मिलता है।


वादों के अबोले बोलों का,

अनलिखे - अधूरे नग्मों का,

इस दिल की तिजोरी में मेरी,

यादों का खजाना रहता है। 


कुछ जागी - जागी रातों में,

कुछ ठहरे - ठहरे लम्हों में,

ये चाँद बर्फ के टुकड़े सा,

पलकों में मेरी पिघलता है। 




गुरुवार, 10 जून 2021

तारे हैं दूर आसमां में

तारे हैं दूर आसमां में 

और जमीं पे हम,

बस, इक सितारा छूने का 

अरमां लिए हुए।


सबको कहाँ मिलते हैं घर, 

वादी में गुलों की।

काँटों के घरौंदों में भी, 

रहना तो सीखिए।


अच्छा किया, तुमने मेरी 

वफा पे शक किया,

कुछ और सबक सीखने थे, 

सीख ही लिए।


इस मोड़ से ऐ जिंदगी,

चल राह बदल लें,

मिलने के जो मकसद थे,

सभी हमने जी लिए ।


उठ्ठी लहर सागर से, 

किनारे पे मर मिटी।

गहराइयों के राज 

किनारों ने पढ़ लिए।


क्यूँ इस तरहा से कैद में, 

कटती है जिंदगी,

हैं दर भी, दरीचे भी,

जरा खोल लीजिए। 


है उम्र के नाटक का, 

अभी अंक आखिरी।

ना भूल सकें लोग, 

इस तरहा से खेलिए। 






मंगलवार, 25 मई 2021

फिरौती

कभी वह भी प्रकृति से जुड़ी थी,

किताबों में खोई रहती थी,

जिंदगी में क्या चाहिए, पूछने पर

जवाब देती थी - एक हरा भरा शांत कोना

और एक पुस्तकों से भरी लाइब्रेरी।

उसकी खुशियाँ भी मासूम थीं

उसी की तरह,

उसकी ख्वाहिशें भी भोली थीं

बिल्कुल उसी की तरह ।

धीरे धीरे दुनिया की नजर लगी,

उसकी ख्वाहिशें उसकी न रह गईं

उसकी खुशियों पर दूसरों की

चाहतों का रंग चढ़ गया ।

उसके बगीचे और उसकी लाइब्रेरी में

उसकी मरी हुई इच्छाओं की सड़ांध भर गई,

उसकी चिड़ियों और बुलबुलों ने

झरोखों में आकर चहकना छोड़ दिया,

तितलियाँ भी उस हरियाले कोने का

रास्ता भूल गईं । 

और हद तो तब हो गई जब

उसके विचारों का अपहरण करके

उन्हें कालकोठरी में बंद कर दिया गया । 

शायद फिरौती में माँगी गई रकम

उसकी जिंदगी से भी अधिक है,

अपनी तमाम साँसों को देकर भी वह

अपने विचारों को छुड़वा नहीं पाएगी !!!






शनिवार, 13 मार्च 2021

मुस्कुराए भर थे हम तो...


मुस्कुराए भर थे हम तो
देखकर उनकी तरफ,
बात थी छोटी सी, मगर
बन गई कहानियाँ !
       मुस्कुराए भर थे हम तो....

उम्र तो बस उम्र थी,
बीतती चली गई।
बचपना अब भी वही,
अब भी वही नादानियाँ !
       मुस्कुराए भर थे हम तो.....

ग़र्द उस शीशे पे जाने
कब से है जमी हुई,
है नहीं आसां मिटाना
वक्त की निशानियाँ !
       मुस्कुराए भर थे हम तो.....

बादलों से फिर झरेंगे
गीत मेरे इश्क के,
सूखते दरिया में होंगी
फिर वही रवानियाँ !
       मुस्कुराए भर थे हम तो.....

हर बरस बरसेगा सावन
ये बरस लौटेगा कब ?
लौटकर आती नहीं
गुजरी हुई जवानियाँ !
       मुस्कुराए भर थे हम तो......

बुधवार, 3 फ़रवरी 2021

फिर तुम्हारी राहों में !

तड़पेगी याद मेरी, फिर अधूरी चाहों में !
भटकेंगे प्राण मेरे, फिर तुम्हारी राहों में !!

छूकर वह पारिजात, कलियाँ कुछ सद्यजात।
बंद कर पलकें, करोगे, याद कोई मेरी बात।

सिमटेंगे गीत मेरे, फिर तुम्हारी बाँहों में !
भटकेंगे प्राण मेरे, फिर तुम्हारी राहों में !!

सावन की हो फुहार, या बसंत की बयार । 
मन विजन का मौन तोड़, बाजेगा फिर सितार ।

स्वर मद्धम बिखरेंगे, फिर सभी दिशाओं में !
भटकेंगे प्राण मेरे, फिर तुम्हारी राहों में !!

आसपास, फिर उदास, सुन पड़ेगी इक पुकार ।
फिर तुम्हारे नयनों से, बह चलेगी अश्रूधार ।

जल उठेंगे फिर चिराग, इश्क की दरगाहों में !
भटकेंगे प्राण मेरे, फिर तुम्हारी राहों में !!