रविवार, 29 जनवरी 2017

मोबाइल को छुट्टी दे दो....

एक दिन मोबाइल को
छुट्टी दे दो....

फिर से किताबों को,
भोले से ख्वाबों को,
लट्टू पतंगों को,
रिश्तों के रंगों को,
ढूँढ़ने चलो, या फिर
चिट्ठी लिख लो...

एक दिन मोबाइल को
छुट्टी दे दो....

यादों की परियों से,
बचपन की गुड़ियों से,
बट्टी कर लो,
वाट्स अप और
फेसबुक से
कट्टी कर लो...

एक दिन मोबाइल को
छुट्टी दे दो....

फिर ब्रश उठाओ,
कोई पेंटिंग बनाओ,
या सारे दोस्तों को,
घर पर बुलाओ,
अपनों के संग थोड़ी
मस्ती कर लो...

इक दिन मोबाइल को
छुट्टी दे दो....

चलो गाओ गाने,
वो भूले तराने,
तबला उठाओ,
हारमोनियम बजाओ,
चाहे शायरी - कविता
टूटी फूटी कर लो....

एक दिन मोबाइल को
छुट्टी दे दो....


बुधवार, 25 जनवरी 2017

इंसान बदल जाते हैं...

मौसम की तरह से यहाँ इंसान बदल जाते हैं..
उस पर ये शिकायत है कि हालात बदल जाते हैं ।

हम इबादत का तरीका भी ना बदल पाए...
और कुछ लोगों के भगवान बदल जाते हैं ।

खेलते हैं लोग, इस कदर जज्बातों से...
कभी रिश्ते, कभी पहचान बदल जाते हैं ।

रुकता नहीं, कभी, कहीं, यादों का काफिला..
हम भी तिनके सा, इस दरिया में बहे जाते हैं ।

ना उम्मीद मोहब्बत की, ना वफा की आरजू...
लो आप की गुस्ताखियाँ भी माफ किए जाते हैं ।

नहीं मंजूर हमें, अपने मुकद्दर का फैसला...
खुदी बुलंद कर, अंजाम बदल जाते हैं ।



               
   

शनिवार, 21 जनवरी 2017

ये जिंदगी


ये जिंदगी

अनगिनत मोड़ों से गुजरती,
फिर वही,
भागती दौड़ती जिंदगी...

ऊँचे - ऊँचे इरादों के पहाड़ पार करती,

कभी कठिनाइयों की खाई में उतरती,
कभी थक कर बस एक पल को ठहरती,
फिर अनगिनत मोड़ों से गुजरती,
भागती दौड़ती ये जिंदगी.

मासूम रिश्तों की छाँव में सुस्ताती,
यादों की सुनसान घाटियों में भटकाती,
टेढ़े - मेढ़े रास्तों पर गिरती सँभलती,
फिर अनगिनत मोड़ों से गुजरती,
भागती दौड़ती ये जिंदगी

स्वार्थ के काँटों की चुभन से सिहरती,

प्यार के फूलों की महक से महकती,
खुशियों की बगिया में चिड़ियों सी चहकती,
फिर अनगिनत मोड़ों से गुजरती,
भागती दौड़ती ये जिंदगी.
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शनिवार, 14 जनवरी 2017

दास्ताँ लिख लूँ....

फिर चले आओ अजनबी बनकर,
फिर तुम्हें अपना रहनुमा लिख लूँ ।

तुम जो नजरों की जुबाँ में पढ़ लो,

मैं तुम्हें पहला खत अपना लिख लूँ ।

तुम लिखो दिल में, मेरी यादों को,

और मैं तुमको भूलना लिख लूँ ।

थोड़े नादान हैं अल्फाज मेरे,

तुम कहो तो, मैं बचपना लिख लूँ ।

जिद करो तुम  मुझे मनाने की,

आज मैं तुमसे रूठना लिख लूँ ।

जो उमड़ आई है पलकों के तले,

उस घटा का मै बरसना लिख लूँ ।

वक्त उड़ता है पंछियों की तरह,

चंद लम्हों में भला क्या लिख लूँ ।

चले जाना, ज़रा ठहर जाओ,

जो है बाकी वो, दास्ताँ लिख लूँ ।

बुधवार, 11 जनवरी 2017

पाषाण


पाषाण

सुना है कभी बोलते,
पाषाणों को ?
देखा है कभी रोते ,
पाषाणों को ?

कठोरता का अभिशाप,
झेलते देखा है ?
बदलते मौसमों से,
जूझते देखा है ?
पाषाणों से फूटते फव्वारें
देखे हैं कभी ?

कौन कहता है
पाषाणों मे दिल नहीं होते ?

रोते हैं पाषाण
जब बन जाते हैं वे,
किसी के
खून बहाने का जरिया...
चीखते हैं पाषाण
जब टूटते - बिखरते हैं,
मानव के क्रूर हाथों,
अथवा गढ़े जाते हैं
मूक मूर्तियों में.

कौन करता है परवाह
उनकी चाहत की?
कोई पूछे तो सही
उनको क्या बनना है ?

खामोश रहते हैं पाषाण,
होते हैं जब जिंदा दफन,
नींव का पत्थर बनकर.
नहीं माँगते हक अपना,
इठलाती-इतराती इमारतों से.

घोंट देते हैं गला,
अपनी इच्छाओं का
बलिदान हो जाते हैं
पराए सौंदर्य को
सँभालने - सँवारने में.

कौन कहता है
पाषाणों मे दिल नहीं होते ?

मुस्कुरा देते हैं पाषाण
जब कहती है कोई प्रेयसी,
अपने प्रियतम को
----”पत्थर दिल”’
और तब भी जब
कोई इंसान पा जाता है
पत्थर की उपाधि

बह जाते हैं पाषाण
नदियों के प्रवाह संग
घिसते - छीजते हैं बरसों,
तब जाकर पाते हैं
रूप शालिग्राम का
और कहलाते हैं -- 
 'स्वयंभू' ....

कौन कहता है
पाषाणों मे दिल नहीं होते ?

सोमवार, 9 जनवरी 2017

तेरी प्यार वाली नज़र पड़ी....

तेरी प्यार वाली नज़र पड़ी
तो ये सारा आलम बदल गया, 
तूने मुस्कुराकर क्या कहा,
मेरा गुरूर सारा पिघल गया...
          तेरी प्यार वाली नज़र....

जो मैं तुझसे रूठूँ, मेरी खता 
जो तू माफ़ कर दे, तेरा करम,
ये बात आपस की है सनम,
तेरे कहने से दिल बहल गया...
         तेरी प्यार वाली नज़र....

तेरी रहमतों का ये सिलसिला,
ना तो कम हुआ, ना रुका कभी
जब लड़खड़ाए कदम मेरे,
तूने हाथ थामा, सँभल गया...
          तेरी प्यार वाली नज़र ....

वही मधु भरी सुन बाँसुरी,
जिसे सुन के मीरा बावरी,
तेरी हो गयी, कहीं खो गई
क्या उसी का जादू चल गया ?
        तेरी प्यार वाली नज़र.... 

है युगों का नाता तेरा-मेरा,
नहीं प्रीत अपनी नई-नई 
तू कहाँ है ये भी पता नहीं,
तुझे खोजने भी निकल गया...
         तेरी प्यार वाली नज़र...

शनिवार, 7 जनवरी 2017

अग्निपरीक्षा

कितने ही युग बीत गए
समय के प्याले भरे,
और रीत गए....
किन्तु नहीं बदला
आज भी रिवाज
स्त्री की अग्निपरीक्षा का !

पुरुष कोई राम नहीं,
हक़ फिर भी है उसे
अग्निपरीक्षा लेने का
स्त्री कोई सीता नहीं,
धैर्य फिर भी है उसमें
अग्निपरीक्षा देने का !

वह परीक्षा नहीं थी
सीता के सतीत्व की,
वह था  प्रमाण केवल
राम के प्रति प्रेम का...
समाना था धरा में ही
क्या पहले, क्या बाद में ?

अब मेरी बारी है
सह लूँगी, कहूँगी नहीं...
विश्वास है, खरी उतरूँगी
हर परीक्षा में !
धरा में समाने से
रोक तो पाओगे न ?



बुधवार, 4 जनवरी 2017

तनो मत, झुको !

अरे , ओए...
सीना ताने क्यों खड़ा है?
अपने आप में घमंड है क्या?
पैर तो जमीन पर हैं ना?
पैर उठाकर कहाँ रह-जी पाओगे ?

माना, तुम गगनचुंबी हो,
गगन से नीचे बात नहीं करते,
कभी सोचा है कि
गगन के अलावा कोई
तुमसे बात भी तो नहीं करता ।

कभी झुककर आओ
जमीन पर, फिर देखो,
कितने मिलेंगे चाहने वाले
इतना प्यार देंगे कि
बात करने से फुर्सत
भी नहीं मिलेगी.
सीना तानने पर उनकी
कमी महसूस करोगे
फिर तुम गगनचुंबी कहलाना
नहीं चाहोगे ।

सहायक भी बनोगे,
सहायक भी बनेंगे,
सहायता मिल भी जाएगी,
सहायता कर भी पाओगे।

झुकने से कद छोटा नहीं होता,
मात्र कम लगने लगता है,
सामाजिक कद तो बढ़ता ही है,
कद्र भी बढ़ती है।

देखा है मैंने,
तुम्हारे भरते - छलकते
नयनों को हमेशा,
क्यों बहाते हो इतने आँसू ?
धरती पर देखो,
कितने अनगिनत
खूबसूरत फूल खिले हैं
तुम भी उन संग खिलो- खेलो।।

इसलिए मेरी सुनो,
तनना छोड़ो
झुकना सीखो,
और अपना सामाजिक
कद और कद्र बढ़ाओ.

सोमवार, 2 जनवरी 2017

हिमालय आना तेरे पास

हिमालय आना तेरे पास

आना तेरे पास,
हिमालय,
आना तेरे पास !

पाया था केवल एक बार
तेरा दर्शन,
वह प्यास अभी तक बाकी है,
खिंचता है मन !

हिममंडित शिखरों की पुकार 
सुन, स्वप्न ले रहा है आकार !
उस देवभूमि में फिर आऊँँ,
धुल जाएँ सब मन के विकार !
आऊँगी, है पूरा विश्वास,
हिमालय, आना तेरे पास !

ओ नगाधीश,
शुभ्र - श्वेत परिधान किए
ऋषि सा पावन,
तू लिए गोद में
हरियाले वन, कई सघन !

मन करता मेरा, खो जाऊँ
चिड़िया, उस वन की हो जाऊँ,
या बन जाऊँ, कोई मछली
तेरी नदियों में रह पाऊँ,
छूटे जब तन से साँस !
हिमालय, आना तेरे पास !

तू चिर - तापस
है अडिग - अचल !
मेरा मन अस्थिर अज्ञानी
कुछ - कुछ चंचल !
तू शीतल स्नेह बहाए है
आवाहन करे, बुलाए है,

पर मैं ना जानूँ लक्ष्य कहाँ
शापित आत्मा सी दूर यहाँ,
मैं काट रही अज्ञातवास !
कैसे आऊँ पास ?
हिमालय, 
कैसे आऊँ पास !!!

आना तेरे पास,
हिमालय,
आना तेरे पास,