शनिवार, 29 सितंबर 2018

वह चंचल चित्रकार !

आकाश के असीम पटल पर,
रूपसी प्रिया का करता चित्रांकन,
असंतुष्ट - सा, अस्थिर मति,
वह चंचल चित्रकार !!!

क्षण - क्षण करता नव प्रयोग,
किंतु छवि लगती अधूरी !
कभी लाल, कभी पीला, नीला....
अब.... गुलाबी, सुनहरा, सिंदूरी !!!

रंगों का मिश्रण, अद्भुत संयोजन,
अधीर हो करता चित्रांकन,
असंतुष्ट - सा, अस्थिर मति,
वह चंचल चित्रकार !!!

नारंगी, किरमिजी, जामुनी,
सलेटी, रुपहला, बादामी, बैंगनी,
घोल घोल रंगों को छिड़कता,
पुनः अपनी ही कृति को निरखता !

कूची डुबा - डुबा हर रंग में,
आड़ा,तिरछा,वक्र,करता रेखांकन !
असंतुष्ट - सा, अस्थिर मति,
वह चंचल चित्रकार !!!

जब ना बन पाई मनभाती छवि,
होकर उदास, वह चितेरा रवि
जलसमाधि को हुआ उद्युत,
तब प्रकटी संध्या, रूपसी अद्भुत !!!

लो अब पूर्ण हुआ चित्रांकन,
प्रिया को बाँधे प्रगाढ़ आलिंगन !
स्मितमुख विदा हुआ धीमे - धीमे,
वह बावरा, चंचल चित्रकार !!!

शनिवार, 15 सितंबर 2018

क्षितिज

जहाँ मिल रहे गगन धरा
मैं वहीं तुमसे मिलूँगी,
अब यही तुम जान लेना
राह एकाकी चलूँगी ।

ना कहूँगी फ़िर कभी
कि तुम बढ़ाओ हाथ अपना,
मैं नयन तुमको बसाकर
देखती हूँ एक सपना !!!
संग मेरे तुम ना आओ,
रूठ जाऊँ, मत मनाओ
पर तुम्हारी राह में मैं
फूल बनकर तो खिलूँगी !
फ़िर वहीं तुमसे मिलूँगी !!!

जहाँ मिल रहे गगन धरा
मैं वहीं तुमसे मिलूँगी ।
अब यही तुम जान लेना
राह एकाकी चलूँगी ।

श्वास की सरगम पे पल पल
नाम गूँजेगा तुम्हारा,
चेतना के रिक्त घट में
प्रेम की पीयूष धारा !
मैं उसी अमि धार से
अभिषेक प्रियतम का करूँगी,
बाट जोहूँगी युगों तक,
दीप बनकर मैं जलूँगी !
फिर वहीं तुमसे मिलूँगी !!!

जहाँ मिल रहे गगन धरा
मैं वहीं तुमसे मिलूँगी ।
अब यही तुम जान लेना
राह एकाकी चलूँगी ।



शुक्रवार, 7 सितंबर 2018

बंधन

क्यों बाँधा मुझको बंधन में ?

रिश्तों के बंधन से ऊपर,
कुछ भाव, भाव से मिलते थे
दुनिया की परिपाटी तजकर
दो हृदय चाव से मिलते थे !
जब व्यथा एक को होती थी,
आँसू दूजे की अँखियन में !!!
क्यों बाँधा ऐसे बंधन में ?

मितवा मेरे, मनमीत बने
तुम मनवीणा के गीत बने
निर्जन में कोकिल कूजन सा
वीराने का संगीत बने !
पदचाप तुम्हारी सुनती हूँ,
अब भी मेरे उर आँगन में !!!
क्यों बाँधा ऐसे बंधन में ?

बंधन यह उर से धड़कन का,
बंधन श्वासों से स्पंदन का,
यह बंधन था मन से मन का,
बंधन प्राणों से ज्यों तन का !
मन के अथाह अंधियारे में
जीवन बीतेगा भटकन में !!!
क्यों बाँधा मुझको बंधन में ?

जब पुष्प सूख गिर जाता है,
तब वृक्ष ना अश्रु बहाता है
जब नदी सूखकर मृत होती,
सागर तब भी लहराता है !
मैं बद्ध हुई, तुम मुक्त रहे,
स्वच्छंद विहग-से उपवन में !!!
क्यों बाँधा मुझको बंधन में ?

मन के अथाह अंधियारे में
जीवन बीतेगा भटकन में !!!
क्यों बाँधा मुझको बंधन में ?