मंगलवार, 29 सितंबर 2020

प्रकृति - गीत

दूर गगन इक तारा चमके

मेरी ओर निहारे,

मुझको अपने पास बुलाए

चंदा बाँह पसारे ।


पंछी अपने गीतों की

दे जाते हैं सौगातें,

वृक्ष-लता सपनों में आ

करते हैं मुझसे बातें ।


झरने दुग्ध धवल बूँदों से

मुझे भिगो देते हैं,

अपने संग माला में मुझको

फूल पिरो लेते हैं ।


कोयलिया कहती है मेरे

स्वर में तुम भी बोलो,

नदिया कहती, शीतल जल में

अपने पाँव भिगो लो ।


सारी पुष्प-कथाएँ

तितली-भौंरे बाँच सुनाते,

नन्हे-से जुगनू तम में

आशा की ज्योति जगाते ।


लहरें सागर की देती हैं

स्नेह निमंत्रण आने का,

पर्वत शिखर सदा कहते हैं

भूलो दर्द जमाने का ।


माँ की तरह प्रकृति मुझ पर

ममता बरसाती है,

अपने हृदय लगाकर मुझको

मीठी नींद सुलाती है।



सोमवार, 28 सितंबर 2020

कब तक चलना है एकाकी ?

जीवन की दुस्तर राहों पर,

कब तक चलना है एकाकी ?

ठोकर खाकर गिर जाना है

और सँभलना है एकाकी !!!


मैंने सबकी राहों से,

हरदम बीना है काँटों को ।

मेरे पाँव हुए जब घायल

पीड़ा सहना है एकाकी !!!


इन हाथों ने आगे बढ़कर,

सबकी आँखें पोंछी हैं ।

अपनी आँखें जब भर आईं,

मुझको रोना है एकाकी !!!


सीमाओं को पार न करना,

मर्यादाओं में रहना ।

इसका दंड मिला है पल-पल,

जिसे भोगना है एकाकी !!!


विष के वृक्ष को काट ना पाई,

छाया की उम्मीद रही।

जहर भरे फल झोली गिरते

जिनको चखना है एकाकी !!!


स्वप्न, उम्मीदें, यादें, वादे

बाकी हैं, पर धुँधले - धुँधले।

धुंध भरी राहें, मंजिल तक

मुझे पहुँचना है एकाकी !!!





शनिवार, 19 सितंबर 2020

उफ्फ ! कितना लिख रहे हैं लोग !

उफ्फ ! कितना लिख रहे हैं लोग !

लिख-लिख कर दरो दीवारों पर,

बंदूकों पर, औजारों पर,

तटबंधों पर, मँझधारों पर,

जो भी मन में हजम ना हुआ

उसकी उल्टी कर रहे हैं लोग !

उफ्फ ! कितना लिख रहे हैं लोग !!!


लिखने से पहले पढ़ भी लो,

अपने विचार को गढ़ भी लो,

चेतना शिखर पर चढ़ भी लो !!!

नशा ख्याति का, बिना पिए ही

देखो कैसे झूम रहे हैं लोग !

उफ्फ ! कितना लिख रहे हैं लोग !!!


लेखन के इन बाजारों में,

कविताओं के गलियारों में,

इन जलसों के चौबारों में,

पठनीय कहीं छुप जाता है

 बकवासों की भरमारों में !!!

समय की फिर भी कमी का

काहे रोना रो रहे हैं लोग !

उफ्फ ! कितना लिख रहे हैं लोग !!!


साधन सुलभ पहुँच के भीतर,

लिख मारो सारे पन्नों पर ,

कलम दवात की नहीं जरूरत,

हल्का होता दिल लिख-लिखकर

फिर क्यों बोझिल हो रहे हैं लोग ?

उफ्फ !!!!...............

    ( इस कविता को किसी से जोड़ा ना जाए, ये भी एक बकवास ही है )





गुरुवार, 3 सितंबर 2020

क्या कभी हम फिर मिलेंगे ?

डाल से, टूटकर गिरता हुआ

फूल कातर हो उठा।

क्यूँ भला, साथ इतना ही मिला ?

कह रहा बगिया को अपनी अलविदा,

पूछता है शाख से वह अनमना -

"क्या कभी हम फिर मिलेंगे ?"


एक तारा टूटकर, साथियों से रूठकर

चल पड़ा जाने कहाँ, एक अनंत यात्रा !

ओह ! वापस लौटना संभव नहीं !

किंतु नभ की गोद में फिर खेलने की

चाह तो बाकी रही !

सोचता है - नियति थी शायद यही,

"क्या कभी हम फिर मिलेंगे ?"


मेघ की गोदी से जब ढुलक पड़ी

बूँद एक संग हवा के बह चली, 

छलक  पड़ी !!!

तृप्त करने चल पड़ी सूखी मही,

मेघ को भूली नहीं !

देह छूटी, प्राण का बंधन वही !

डोर टूटी, नेह का बंधन नहीं !

विकल मन से पूछती वह मेघ से -

"क्या कभी हम फिर मिलेंगे ?"


मातृभूमि की करुण पुकार सुन

देशरक्षा देशभक्ति, यही धुन !

इसी धुन में झूमता निकल पड़ा

शत्रुओं पर सिंह सा गरज पड़ा !!!

मृत्यु के घुंगुर छ्माछम बज रहे,

कौन जाने काल किस क्षण कर गहे ?

मानता हर साँस को, अंतिम यही !

आस तो घर लौटने की भी रही। 

हो रहा कर्तव्य पथ पर अग्रसर,

साथियों से पूछता है मुस्काकर -

"क्या कभी हम फिर मिलेंगे ?"

"क्या कभी हम फिर मिलेंगे ?"





मंगलवार, 1 सितंबर 2020

मन भूलभुलैया !

 मन भूलभुलैया !!!

भटकती हैं भावनाएँ

कल्पनाएँ बावरी सी

छ्टपटा रहे विचार

कौन राह निकलें ?

एक राह दूसरी से, तीसरी से,

चौथी से, पाँचवीं से.....

गुत्थमगुत्था पड़ी हैं 

और सभी राहें

गुजरती हैं उसी मन से

भूलभुलैया है जो

मन भूलभुलैया !!!


मन भूलभुलैया !!!

बादलों में बादल

लताओं में लताएँ

शाखों में शाखाएँ

पहाड़ों से गिरती हुई

दुग्ध धवल धाराएँ

उलझे उलझे हैं सब

इतना उलझे हैं कि

अलग हुए तो जैसे

टूट टूट जाएँगे 

चित्र सभी कुदरत के !!!

मन भूलभुलैया !!!


मन भूलभुलैया !!!

बेवजह ही फुदकती है

चिड़िया यहाँ वहाँ

झटक भीगे पंखों को

गर्दन को मोड़कर

टेढ़ा कर चोंच को

हेय दृष्टि का कटाक्ष

फेंकती है,

व्यस्त त्रस्त दुनिया के

लोगों पर !!!

उड़ जाती है फुर्र से ।

ठगी सी खड़ी - खड़ी

सोचती मैं रह जाती

मन भूलभुलैया !!!