स्वर्ण संध्या, स्वर्ण दिनकर
सब दिशाएँ सुनहरी !
बिछ गई सारी धरा पर
एक चादर सुनहरी !
आसमाँ पर बादलों में
इक सुनहरा गाँव है,
स्वर्ण-से क्षण, स्वर्ण-सा मन,
स्वर्ण-से ये भाव हैं ।
सोनपरियों-सी सुनहरी,
सूर्यमुखियों की छटा ।
पीत वस्त्रों में लिपटकर
सोनचंपा महकता।
सुरभि से उन्मत्त होकर
नाचती पागल पवन !
पीत पत्तों का धरा पर
स्वर्णमय बिछाव है ।
स्वर्ण-से क्षण, स्वर्ण-सा मन,
स्वर्ण-से ये भाव हैं ।
सुनहरे आकाश से अब
स्वर्ण किरणें हैं उतरतीं ।
सुनहरी बालू पे जैसे
स्वर्ण लहरें नृत्य करतीं ।
पिघलता सोना बहे औ'
स्वर्ण - घट रीता रहे !
प्रकृति का या नियति का
यह अजब अभाव है।
स्वर्ण-से क्षण, स्वर्ण-सा मन,
स्वर्ण-से ये भाव हैं ।
हैं हृदय के कोष में,
संचित सभी यादें सुनहली ।
और अँखियों में बसी है
रात पूनम की, रुपहली।
तुम मेरे गीतों को, जलने दो
विरह की अग्नि में !
आग में तपकर निखरना
स्वर्ण का स्वभाव है।
स्वर्ण-से क्षण, स्वर्ण-सा मन,
स्वर्ण-से ये भाव हैं ।
----- ©मीना शर्मा