गुरुवार, 26 नवंबर 2020

स्वर्ण-से क्षण

स्वर्ण संध्या, स्वर्ण दिनकर

सब दिशाएँ सुनहरी !

बिछ गई सारी धरा पर

एक चादर सुनहरी !

आसमाँ पर बादलों में

इक सुनहरा गाँव है,

स्वर्ण-से क्षण, स्वर्ण-सा मन,

स्वर्ण-से ये भाव हैं ।


सोनपरियों-सी सुनहरी,

सूर्यमुखियों की छटा ।

पीत वस्त्रों में लिपटकर

सोनचंपा महकता। 

सुरभि से उन्मत्त होकर

नाचती पागल पवन !

पीत पत्तों का धरा पर

स्वर्णमय बिछाव है ।

स्वर्ण-से क्षण, स्वर्ण-सा मन,

स्वर्ण-से ये भाव हैं ।


सुनहरे आकाश से अब

स्वर्ण किरणें हैं उतरतीं ।

सुनहरी बालू पे जैसे

स्वर्ण लहरें नृत्य करतीं ।

पिघलता सोना बहे औ'

स्वर्ण - घट रीता रहे !

प्रकृति का या नियति का

यह अजब अभाव है।

स्वर्ण-से क्षण, स्वर्ण-सा मन,

स्वर्ण-से ये भाव हैं ।


हैं हृदय के कोष में,

संचित सभी यादें सुनहली ।

और अँखियों में बसी है

रात पूनम की, रुपहली।

तुम मेरे गीतों को, जलने दो 

विरह की अग्नि में !

आग में तपकर निखरना

स्वर्ण का स्वभाव है। 

स्वर्ण-से क्षण, स्वर्ण-सा मन,

स्वर्ण-से ये भाव हैं ।

----- ©मीना शर्मा


बुधवार, 25 नवंबर 2020

एक मुद्दत बाद....

एक मुद्दत बाद खुद के साथ आ बैठे

यूँ लगा जैसे कि रब के साथ आ बैठे !


कौन कहता है कि, तन्हाई रुलाती है,

हम खयालों में, उन्हीं के साथ जा बैठे।


वक्त, इतना वक्त, देता है कभी - कभी

इक ग़ज़ल भूली हुई हम गुनगुना बैठे।


लौटकर हम अपनी दुनिया में, बड़े खुश हैं

काँच के टुकड़ों से, गुलदस्ता बना बैठे ।


कोई कर लेता है कैसे, उफ्फ ! सौदा दोस्ती का

हम हलफ़नामे में, अपनी जाँ लिखा बैठे ।


एक अरसे बाद खोला, उस किताब को

फड़फड़ाते सफ़हे हमको, मुँह चिढ़ा बैठे। 


छाँव में  जिनकी पले, खेले, बढ़े,

उन दरख्तों पे क्यूँ तुम, आरी चला बैठे। 




बुधवार, 28 अक्टूबर 2020

कितना और मुझे चलना है ?

जीवन की लंबी राहों में

पीछे छूटे सहचर कितने !

कितनी यात्रा बाकी है अब ?

कितना और मुझे चलना है ?


कितना और अभी बाकी है, 

इन श्वासों का ऋण आत्मा पर !

किन कर्मों का लेखा - जोखा,

देना है विधना को लिखकर !

अभी और कितने सपनों को,

मेरे नयनों में पलना है ?

कितना और मुझे चलना है ?


अस्ताचल को चला भास्कर

और एक दिन गया गुजर !

कितने और पड़ाव रह गए ?

सहज प्रश्न यह, अचरज क्योंकर ?

बाकी कितने अनजानों से,

मुझको और यहाँ मिलना है ?

कितना और मुझे चलना है  ?


यूँ तो, इतनी आसानी से

मेरे कदम नहीं थकते हैं,

लेकिन जब संध्या की बेला

पीपल तले दिए जलते हैं !

मेरे हृदय - दीप  की, कंपित

लौ पूछे, कितना जलना है ?

कितना और मुझे चलना है ?







बुधवार, 21 अक्टूबर 2020

शरद पूर्णिमा के मयंक से

इस जीवन की मरुभूमि पर

सजल सरोवर जैसे तुम !

चुभते पाषाणों के पथ पर

कोमल दूर्वादल से तुम !


पीड़ा की कज्जल बदरी ने

ढाँप दिए खुशियों के तारे,

इक तारा कसकर मुठ्ठी में,

बाँध लिया था, वह थे तुम !


ग्रीष्म ऋतु के सूरज जैसा

दाहक दंभ सहा दुनिया का,

शरद पूर्णिमा के मयंक से

झरते सुधा-बिंदु हो तुम !


इंद्रधनुष के रंगों को

नभ ने बिखराया फूलों पर,

मेरे हिस्से के रंगों की

ईश्वर - प्रदत्त धरोहर तुम !


जोड़-जोड़कर जिनको मैंने

जाने कितने गीत बुने,

मेरे गीतों के शब्दों के

पावन अक्षर - अक्षर तुम !!!

मंगलवार, 29 सितंबर 2020

प्रकृति - गीत

दूर गगन इक तारा चमके

मेरी ओर निहारे,

मुझको अपने पास बुलाए

चंदा बाँह पसारे ।


पंछी अपने गीतों की

दे जाते हैं सौगातें,

वृक्ष-लता सपनों में आ

करते हैं मुझसे बातें ।


झरने दुग्ध धवल बूँदों से

मुझे भिगो देते हैं,

अपने संग माला में मुझको

फूल पिरो लेते हैं ।


कोयलिया कहती है मेरे

स्वर में तुम भी बोलो,

नदिया कहती, शीतल जल में

अपने पाँव भिगो लो ।


सारी पुष्प-कथाएँ

तितली-भौंरे बाँच सुनाते,

नन्हे-से जुगनू तम में

आशा की ज्योति जगाते ।


लहरें सागर की देती हैं

स्नेह निमंत्रण आने का,

पर्वत शिखर सदा कहते हैं

भूलो दर्द जमाने का ।


माँ की तरह प्रकृति मुझ पर

ममता बरसाती है,

अपने हृदय लगाकर मुझको

मीठी नींद सुलाती है।



सोमवार, 28 सितंबर 2020

कब तक चलना है एकाकी ?

जीवन की दुस्तर राहों पर,

कब तक चलना है एकाकी ?

ठोकर खाकर गिर जाना है

और सँभलना है एकाकी !!!


मैंने सबकी राहों से,

हरदम बीना है काँटों को ।

मेरे पाँव हुए जब घायल

पीड़ा सहना है एकाकी !!!


इन हाथों ने आगे बढ़कर,

सबकी आँखें पोंछी हैं ।

अपनी आँखें जब भर आईं,

मुझको रोना है एकाकी !!!


सीमाओं को पार न करना,

मर्यादाओं में रहना ।

इसका दंड मिला है पल-पल,

जिसे भोगना है एकाकी !!!


विष के वृक्ष को काट ना पाई,

छाया की उम्मीद रही।

जहर भरे फल झोली गिरते

जिनको चखना है एकाकी !!!


स्वप्न, उम्मीदें, यादें, वादे

बाकी हैं, पर धुँधले - धुँधले।

धुंध भरी राहें, मंजिल तक

मुझे पहुँचना है एकाकी !!!





शनिवार, 19 सितंबर 2020

उफ्फ ! कितना लिख रहे हैं लोग !

उफ्फ ! कितना लिख रहे हैं लोग !

लिख-लिख कर दरो दीवारों पर,

बंदूकों पर, औजारों पर,

तटबंधों पर, मँझधारों पर,

जो भी मन में हजम ना हुआ

उसकी उल्टी कर रहे हैं लोग !

उफ्फ ! कितना लिख रहे हैं लोग !!!


लिखने से पहले पढ़ भी लो,

अपने विचार को गढ़ भी लो,

चेतना शिखर पर चढ़ भी लो !!!

नशा ख्याति का, बिना पिए ही

देखो कैसे झूम रहे हैं लोग !

उफ्फ ! कितना लिख रहे हैं लोग !!!


लेखन के इन बाजारों में,

कविताओं के गलियारों में,

इन जलसों के चौबारों में,

पठनीय कहीं छुप जाता है

 बकवासों की भरमारों में !!!

समय की फिर भी कमी का

काहे रोना रो रहे हैं लोग !

उफ्फ ! कितना लिख रहे हैं लोग !!!


साधन सुलभ पहुँच के भीतर,

लिख मारो सारे पन्नों पर ,

कलम दवात की नहीं जरूरत,

हल्का होता दिल लिख-लिखकर

फिर क्यों बोझिल हो रहे हैं लोग ?

उफ्फ !!!!...............

    ( इस कविता को किसी से जोड़ा ना जाए, ये भी एक बकवास ही है )





गुरुवार, 3 सितंबर 2020

क्या कभी हम फिर मिलेंगे ?

डाल से, टूटकर गिरता हुआ

फूल कातर हो उठा।

क्यूँ भला, साथ इतना ही मिला ?

कह रहा बगिया को अपनी अलविदा,

पूछता है शाख से वह अनमना -

"क्या कभी हम फिर मिलेंगे ?"


एक तारा टूटकर, साथियों से रूठकर

चल पड़ा जाने कहाँ, एक अनंत यात्रा !

ओह ! वापस लौटना संभव नहीं !

किंतु नभ की गोद में फिर खेलने की

चाह तो बाकी रही !

सोचता है - नियति थी शायद यही,

"क्या कभी हम फिर मिलेंगे ?"


मेघ की गोदी से जब ढुलक पड़ी

बूँद एक संग हवा के बह चली, 

छलक  पड़ी !!!

तृप्त करने चल पड़ी सूखी मही,

मेघ को भूली नहीं !

देह छूटी, प्राण का बंधन वही !

डोर टूटी, नेह का बंधन नहीं !

विकल मन से पूछती वह मेघ से -

"क्या कभी हम फिर मिलेंगे ?"


मातृभूमि की करुण पुकार सुन

देशरक्षा देशभक्ति, यही धुन !

इसी धुन में झूमता निकल पड़ा

शत्रुओं पर सिंह सा गरज पड़ा !!!

मृत्यु के घुंगुर छ्माछम बज रहे,

कौन जाने काल किस क्षण कर गहे ?

मानता हर साँस को, अंतिम यही !

आस तो घर लौटने की भी रही। 

हो रहा कर्तव्य पथ पर अग्रसर,

साथियों से पूछता है मुस्काकर -

"क्या कभी हम फिर मिलेंगे ?"

"क्या कभी हम फिर मिलेंगे ?"





मंगलवार, 1 सितंबर 2020

मन भूलभुलैया !

 मन भूलभुलैया !!!

भटकती हैं भावनाएँ

कल्पनाएँ बावरी सी

छ्टपटा रहे विचार

कौन राह निकलें ?

एक राह दूसरी से, तीसरी से,

चौथी से, पाँचवीं से.....

गुत्थमगुत्था पड़ी हैं 

और सभी राहें

गुजरती हैं उसी मन से

भूलभुलैया है जो

मन भूलभुलैया !!!


मन भूलभुलैया !!!

बादलों में बादल

लताओं में लताएँ

शाखों में शाखाएँ

पहाड़ों से गिरती हुई

दुग्ध धवल धाराएँ

उलझे उलझे हैं सब

इतना उलझे हैं कि

अलग हुए तो जैसे

टूट टूट जाएँगे 

चित्र सभी कुदरत के !!!

मन भूलभुलैया !!!


मन भूलभुलैया !!!

बेवजह ही फुदकती है

चिड़िया यहाँ वहाँ

झटक भीगे पंखों को

गर्दन को मोड़कर

टेढ़ा कर चोंच को

हेय दृष्टि का कटाक्ष

फेंकती है,

व्यस्त त्रस्त दुनिया के

लोगों पर !!!

उड़ जाती है फुर्र से ।

ठगी सी खड़ी - खड़ी

सोचती मैं रह जाती

मन भूलभुलैया !!!



सोमवार, 17 अगस्त 2020

प्रभु ! सखा को नातो राखिए

ज्यों अर्जुन को रथ हांक्यो

प्रभु मेरी भी गाड़ी हांकिए

गोपिन को माखन चाख्यो 

मेरी रूखी सूखी चाखिए।


लाल कहूँ, गोपाल कहूँ,

नंदलाल कहूँ, क्या नाम धरूँ

मेरो कोई सखा नहीं प्रभु

सखा को नातो राखिए।


करूँ समर्पण क्या मैं तोहे

योग्य तिहारे कछु ना पाऊँ,

मैं अति दीन हीन दुर्बल हूँ

स्वामी, न मोको आँकिए !


मोहिनी मूरत पर बलि जाऊँ

मन मंदिर में तोहि बसाऊँ

नजर ना लग जाए लाला,

इतनो ना सुंदर लागिए !!!

(आज गोपाल की छ्ठीपूजन पर मन के भाव )



रविवार, 16 अगस्त 2020

छद्म भावों से घिरे !

 कितने दिखावों से घिरे, 

कितने छलावों से घिरे !

क्यूँ जी रहे हो जिंदगी,

यूँ छद्म भावों से घिरे !


ना प्रेम ही करते बना

ना ज्ञान ही पाया घना

ना मीत ही कोई बना

ना जीत ने तुमको चुना ।

चलते रहे कदम-कदम

कितने अभावों से घिरे !

क्यूँ जी रहे हो जिंदगी

यूँ छद्म भावों से घिरे !


जाने ये जन्म क्यों मिला

तुम जान ही पाए नहीं,

पाकर मनुज शरीर को

मानव भी बन पाए नहीं !

जो फल नहीं पाईं कभी

ऐसी दुआओं से घिरे !

क्यूँ जी रहे हो जिंदगी

यूँ छद्म भावों से घिरे !


बस मौन हो सहते रहे

हर जुल्म को, अन्याय को

तुम बाँच भी पाए कहाँ

आयु के हर अध्याय को ।

जीवन के रंगमंच पर 

झूठी अदाओं से घिरे !

क्यूँ जी रहे हो जिंदगी

यूँ छद्म भावों से घिरे !



बुधवार, 12 अगस्त 2020

कितना समय लगाया कान्हा !!!

दुनिया ने जब जब दुत्कारा
तूने गले लगाया कान्हा,
मैं अर्जुन सी भ्रमित हो गई
गीता ज्ञान सिखाया कान्हा !!!

सपनों की सच्चाई देखी,
अच्छों की अच्छाई देखी,
अपनेपन में छिपी, कुटिलता-
स्वारथ की परछाईं देखी,
कदम-कदम ठोकर खाकर भी
पागल मन भरमाया कान्हा !!!

सुख की खोज में दर-दर भटका,
द्वार खुला नहीं, फिर भी घट का !
फूलों की चाहत थी किंतु
माया ने काँटों में पटका !
जब बेड़ा भवसागर अटका
तूने पार लगाया कान्हा !!!

बारह महीने सावन-भादों
मेरी आँखों में रहते हैं,
तुम आओ तो चरण पखारूँ
नयनों से झरने बहते हैं !
टूट ना जाए साँस की डोरी
कितना समय लगाया कान्हा !!!

बुधवार, 13 मई 2020

मंजिल नहीं यह बावरे !

चल, दूर कहीं चल मन मेरे
मंजिल नहीं यह बावरे !!!

पाँव डगमग हो रहे औ'
नयन छ्लछ्ल हो रहे,
मीत बनकर जॊ मिले थे
वह भरोसा खो रहे।
प्रेम की बूँदों का प्यासा
बन ना चातक बावरे !!!

चल, दूर कहीं चल मन मेरे
मंजिल नहीं यह, बावरे !!!

पथ अंधेरा गर मिले तो
आस के दीपक जला ले,
राह में काँटें अगर हों
पाँव को अपने बचा ले !
तू अकेला ही प्रवासी
कोई न तेरे साथ रे !!!

चल, दूर कहीं चल मन मेरे
मंजिल नहीं यह, बावरे !!!

याद आएँ जो तुझे, कूचे
कभी इस शहर के
आँसुओं को मत बहाना
घूँट पीना जहर के ।
वेदना मत भूलना यह
भरने ना देना घाव रे !!!

चल, दूर कहीं चल मन मेरे
मंजिल नहीं यह, बावरे !!!




शनिवार, 2 मई 2020

अब ना रुकूँगी - 2

छोड़कर बचपना
जरा मैच्योर हो जाऊँ
यही चाहते थे ना तुम ?
कोशिश कर रही हूँ।
बस कुछ ही दिनों में
पचासवाँ लग जाएगा,
पचासों तरह की गलतियाँ
अब भी होती रहती हैं।
मैंने शुरू कर दिया है खुद को समेटना
क्योंकि बिखराव तुम्हें पसंद नहीं।
कभी यही बिखराव ले आया था
तुम्हारी दुनिया में,
बिखरे हुए कुछ टुकड़े छिटककर
तुम्हारे कदमों में पड़े थे,;
उन टुकड़ों पर पैर रख
तुम आगे बढ़ गए।
यहाँ सबको अपने बिखरे टुकड़े
खुद उठाने पड़ते हैं,
फिर उन्हें खुद ही जोड़ना पड़ता है।
बचपन में कागज का फटा नक्शा
जोड़ने की कवायद, तुमने भी की होगी।
वो आसान था, क्योंकि उसके पीछे
एक आदमी बना होता था 
आदमी जोड़ दो, नक्शा जुड़ जाता था।
इन बिखरे टुकड़ों के पीछे
कोई आदमी नहीं बना है ना !
समय लगेगा, जोड़ लूँगी।
फिर एक बार, अब ना रुकूँगी !

बुधवार, 8 अप्रैल 2020

क्या वतन से रिश्ता कुछ भी नहीं ?

धर्म से रिश्ता सब कुछ है,क्या वतन से रिश्ता कुछ भी नहीं?
ओ भाई मेरे,ओ बंधु मेरे,क्या अमन से रिश्ता कुछ भी नहीं?

जिस माटी में तुम जन्मे, खेले-खाए और पले - बढ़े
उस माटी से गद्दारी क्यों, ये कैसी जिद पर आज अड़े ?
क्या अक्ल गई मारी तेरी, किसके बहकावे में बिगड़े,
जी पाओगे अपने दम पर, क्या आपस में करके झगड़े?
क्यूँ समझाना बेकार हुआ, क्यूँ शत्रु हुए मानवता के?
क्यूँ वतनपरस्ती भूल गए, क्या यही सिखाया मजहब ने?

शाख से ही रिश्ता है क्या, इस चमन से रिश्ता कुछ भी नहीं?
धर्म से रिश्ता सब कुछ है और वतन से रिश्ता कुछ भी नहीं?

क्यों छेद कर रहे उसमें ही, जिस थाली में तुम खाते हो?
जो हाथ तुम्हारे रक्षक हैं, उनको ही तोड़ने जाते हो ?
हम एक रहें और नेक रहें, क्या यह मानव का फर्ज़ नहीं?
यह धरती तेरी भी माँ है, माँ का तुझ पर कोई कर्ज नहीं?
नफरत से नफरत बढ़ती है, क्यों आग लगाने को निकले?
इक सड़ी सोच को लेकर क्यों, ईमान मिटाने को निकले?

क्या तेरी नजर में भाई मेरे, इंसान से रिश्ता कुछ भी नहीं?
धर्म से रिश्ता सब कुछ है और वतन से रिश्ता कुछ भी नहीं?



शनिवार, 29 फ़रवरी 2020

पतवार तुम्हारे हाथों है

पतवार तुम्हारे हाथों है,
मँझधार का डर क्यों हो मुझको ?
इस पार से नैया चल ही पड़ी,
उस पार का डर क्यों हो मुझको ?

जीवन की अँधेरी राहों पर
चंदा भी तुम, तारे भी तुम ।
सूरज भी तुम, दीपक भी तुम,
अँधियार का डर क्यों हो मुझको ?

मैं पतित, मलीन, दुराचारी,
तुम मेरे गंगाजल कान्हा !
घनश्याम सखा तुम हो मेरे,
संसार का डर क्यों हो मुझको ?

जग तेरी माया का नाटक
तूने ही पात्र रचा मेरा,
जिस तरह नचाए, नाचूँ मैं
बेकार का डर क्यों हो मुझको ?

मैं कर्तापन में भरमाया
तू मुझे देखकर मुस्काया,
जब सारा खेल ही तेरा है
तो हार का डर क्यों हो मुझको ?

संसार का प्रेम है इक सपना,
है कौन यहाँ मेरा अपना !
तू प्रेम करे तो दुनिया के
व्यवहार का डर क्यों हो मुझको ?


मंगलवार, 11 फ़रवरी 2020

प्रतिकार लिख मेरी कलम !

नसों में खौलते लहू का,
ज्वार लिख मेरी कलम !
जुल्म और अन्याय का,
प्रतिकार लिख मेरी कलम !

मत लिख अब बंसी की धुन,

मत लिख भौंरों की गुनगुन,
अब झूठा विश्वास ना बुन,
लिख, फूलों से काँटे चुन !
बहुत हुआ, अब कटु सत्य
स्वीकार, लिख मेरी कलम !

जुल्म और अन्याय का,

प्रतिकार लिख मेरी कलम !

पुष्पों की पंखुड़ियों के,

वर्षा की रिमझिम लड़ियों के,
यौवन की उन घड़ियों के,
तारों की फुलझड़ियों के
गीत बहुत लिख लिए,
अंगार लिख मेरी कलम !

जुल्म और अन्याय का,

प्रतिकार लिख मेरी कलम !

गूँगे कंठ की वाणी बन,

जोश से भरी जवानी बन
हारे दिल की बन हिम्मत,
आशा भरी कहानी बन !
शोषित, पीड़ित, आहत के
अधिकार लिख मेरी कलम !

जुल्म और अन्याय का,

प्रतिकार लिख मेरी कलम !

रोता है अब जन-गण-मन,

लुटता है जनता का धन,
देश भूमि का सुन क्रंदन,
मत लिख पायल की छ्न-छ्न !
शिव का त्रिशूल, शक्ति की
तलवार लिख मेरी कलम !!!!!

जुल्म और अन्याय का,

प्रतिकार लिख मेरी कलम !

शनिवार, 8 फ़रवरी 2020

शोर

मशीनों और वाहनों का 
रात-दिन गरजना,
घंटे-घड़ियालों, लाउडस्पीकरों का
शाम-सबेरे चीख-चीखकर
अपने-अपने धर्म की घोषणा करना,
रेलगाड़ियों का धड़धड़ाना !

कक्षा से मेरे निकलते ही बच्चों द्वारा
बेंचों का पीटे जाना,
मुँह पर लगे तालों को खोल-खोलकर
कक्षा के फर्श पर पटकना,
चिल्ला-चिल्लाकर मेरे अनुशासन 
की धज्जियाँ उड़ाना !

हजारों तरह के भोंपुओं का बजना,
कुत्तों का भौंक-भौंककर
मानव के आस्तित्व को धता बताना !
शक्ति प्रदर्शन, अधिकारों की माँग करते
नारों और जयजयकारों का गरजना !
गाहे-बगाहे, वजह-बेवजह 
ढोल नगाड़ों का बजना
भीड़ का बजबजाना !
उफ ! ये शोर !!!

नाजायज औलाद की तरह
पैदा होता है यह कानफाड़ू शोर !
कोई नहीं लेता इसका जिम्मा
फिर भी ये पलता रहता है,
बढ़ता रहता है, बढ़ता ही जाता है !

ये शोर मेरे कानों में गूँजता है,
मेरी आत्मा को दबोच लेता है,
मस्तिष्क पर हथौड़े सा प्रहार कर,
मेरी कल्पनाओं का अपहरण कर
विचार शक्ति को सुन्न कर,
अंधेरी खाई में खींच ले जाता है मुझे !

इसके भय से बंद रखती हूँ
खिड़कियाँ, दरवाजे, रोशनदान !
ये शोर मुझे पागल कर देगा
एक प्रेतात्मा की तरह 
मेरे प्राणों को खींचता, 
मेरा खून चूसता ये शोर !

मैं अब इसके साथ जीने के लिए
मजबूर हो चुकी हूँ !
मद्धम, मृदुल, मधुर और
सुकोमल आवाजों के लिए 
बहरी हो चुकी हूँ !!!

मुझे और कुछ नहीं सुनाई देता
ना वसंत की पदचाप
ना तुम्हारी पदचाप
ना मुहब्बत की पदचाप !!!

सोमवार, 3 फ़रवरी 2020

मौन दुआएँ अमर रहेंगी !

श्वासों की आयु है सीमित
ये नयन भी बुझ ही जाएँगे !
उर में संचित मधुबोलों के
संग्रह भी चुक ही जाएँगे !
है स्पर्श का सुख भी क्षणभंगुर
पर मौन दुआएँ, अमर रहेंगी।

बगिया में अनगिन फूल खिले,
अमराई भी है बौराई ।
बेला फूला, तरुशाखाएँ
पल्लव पुष्पों से गदराईं ।

फूलों के कुम्हलाने पर भी,
मधुमास चले जाने पर भी !
खुशबू को फैलानेवाली
मदमस्त हवाएँ अमर रहेंगी।
मौन दुआएँ, अमर रहेंगी।

नदिया में सिरा देना इक दिन
तुम गीत मेरे, पाती मेरी
धारा में बहते दीपों संग
बहने देना थाती मेरी !

स्मृति में पावन पल भरकर
लौ काँपेगी कुछ क्षण थरथर !
जलते दीपक बुझ जाएँगे
बहती धाराएँ अमर रहेंगी।
मौन दुआएँ, अमर रहेंगी।

ये भाव निरामय, निर्मल-से
कोमलता में हैं मलमल-से
मन के दूषण भी हर लेंगे
ये पावन हैं गंगाजल-से !

मत रिक्त कभी करना इनको
ये मंगल कलश भरे रखना !
ना तुम होगे, ना मैं हूँगी,
उत्सव की प्रथाएँ अमर रहेंगी ।
मौन दुआएँ, अमर रहेंगी।






शनिवार, 25 जनवरी 2020

है वही प्रार्थना शुभकारी !

जिन वादों में, संवादों में
ना हृदय कहीं, ना भाव कहीं।
संबंध नहीं, व्यापार हैं वो
अपनों - सा जहाँ बर्ताव नहीं !

आँधी के संग उड़ते-उड़ते,
माटी सोचे, सूरज छू लूँ !
लेकिन जिस आँगन में खेली,
उस आँगन को कैसे भूलूँ !
उपकृत होकर अपकार करे
माटी का यह, स्वभाव नहीं !
संबंध नहीं, व्यापार हैं वो
अपनों - सा जहाँ बर्ताव नहीं !

जब पलकों में पलनेवाले,
सपनों के टुकड़े हो जाएँ !
जिनसे जोड़ा दो हृदयों को,
वो टाँके उधड़े हो जाएँ !
तब लगता है, इस दुनिया में
निश्छलता का निर्वाह नहीं।
संबंध नहीं, व्यापार हैं वो
अपनों - सा जहाँ बर्ताव नहीं !

व्याकुलता के, चंचलता के,
अस्थिरता के, भावुकता के !
ऐसे पल भी निस्सार नहीं,
वे हैं प्रमाण मानवता के !
क्या निर्मल होगा गंगाजल
गंगा में यदि, प्रवाह नहीं !
संबंध नहीं, व्यापार हैं वो
अपनों - सा जहाँ बर्ताव नहीं !

आह्लाद - विह्वलता का संगम,
हो अश्रु - हास्य का जहाँ मिलन !
उस पावन क्षण में जीने को,
देवों का भी करता है मन ।
है वही प्रार्थना शुभकारी
जिसमें पाने की चाह नहीं !
संबंध नहीं, व्यापार हैं वो
अपनों - सा जहाँ बर्ताव नहीं !

मंगलवार, 7 जनवरी 2020

द्वीप


अतलस्पर्शी गहन मौन का
एक महासागर फैला है
तुमसे मुझ तक,मुझसे तुम तक !
दो वीराने द्वीपों-से हम,
अपनी - अपनी सीमाओं में
सिमटे, ठहरे, बद्ध पड़े हैं !

ज्वार और भाटा आने से
इन सुदूर द्वीपों पर भी कुछ
हलचल-सी मच ही जाती है !
शंख, सीपियाँ, सच्चे मोती
कभी भेजना, कभी मँगाना
अनायास हो ही जाता है !

मैं इस तट कुछ लिख देती हूँ
नीलम-से जल की स्याही से
तुम उस तट पर कुछ लिख देना !
लहरों के संग बह आएँगी
लिखी पातियाँ इक दूजे तक
चंदा से कह देना, पढ़ दे !

कितना है आश्चर्य, नियति का
सीमाएँ गढ़ दीं असीम की,
सागर के भी तट होते हैं !
मन भी एक महासागर है
फिर लौटी हैं भाव तरंगें
कुछ प्रतिबंधित क्षेत्रों को छू !

आते-जाते तूफानों में
जाने कितनी दूर रह गईं
मेरे गीतों की नौकाएँ !
खामोशी का गहन समंदर,
दो द्वीपों पर मचे शोर का
कब तक साक्षी बना रहेगा ?