सोमवार, 28 सितंबर 2020

कब तक चलना है एकाकी ?

जीवन की दुस्तर राहों पर,

कब तक चलना है एकाकी ?

ठोकर खाकर गिर जाना है

और सँभलना है एकाकी !!!


मैंने सबकी राहों से,

हरदम बीना है काँटों को ।

मेरे पाँव हुए जब घायल

पीड़ा सहना है एकाकी !!!


इन हाथों ने आगे बढ़कर,

सबकी आँखें पोंछी हैं ।

अपनी आँखें जब भर आईं,

मुझको रोना है एकाकी !!!


सीमाओं को पार न करना,

मर्यादाओं में रहना ।

इसका दंड मिला है पल-पल,

जिसे भोगना है एकाकी !!!


विष के वृक्ष को काट ना पाई,

छाया की उम्मीद रही।

जहर भरे फल झोली गिरते

जिनको चखना है एकाकी !!!


स्वप्न, उम्मीदें, यादें, वादे

बाकी हैं, पर धुँधले - धुँधले।

धुंध भरी राहें, मंजिल तक

मुझे पहुँचना है एकाकी !!!





11 टिप्‍पणियां:

  1. उत्तर
    1. आपके आशीष के लिए धन्यवाद शब्द बहुत कम है आदरणीय शास्त्री जी। सादर प्रणाम।

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  2. सादर नमस्कार ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (29-9 -2020 ) को "सीख" (चर्चा अंक-3839) पर भी होगी,आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    ---
    कामिनी सिन्हा

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  3. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर मंगलवार 29 सितम्बर 2020 को साझा की गयी है............ पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  4. भावों की गहन गंभीरता सीधे अंतस् को स्पर्श करती..हृदयस्पर्शी गीत मीना जी!

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  5. मीना दी, ज्यादातर इंसानों का अनुभव ऐसा ही होता है। लेकिन मुझे लगता है कि जिसकी उसके साथ। हमे स्वयं से प्यार करके हम से जितना अच्छा होता है करते रहना चाहिए। सुंदर अभिव्यक्ति।

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  6. जब कोई साथ नहीं देता तो अकेले ही चलना पड़ता है

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  7. बहुत ही सुंदर हृदय स्पर्शी अभिव्यक्ति। संघर्ष का पड़ाव अकेले को ही पार करना होता है सफलता मिलते ही सभी साथ होंगे।
    बहुत ही सुंदर सराहनीय सृजन दी।

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