शनिवार, 25 जनवरी 2020

है वही प्रार्थना शुभकारी !

जिन वादों में, संवादों में
ना हृदय कहीं, ना भाव कहीं।
संबंध नहीं, व्यापार हैं वो
अपनों - सा जहाँ बर्ताव नहीं !

आँधी के संग उड़ते-उड़ते,
माटी सोचे, सूरज छू लूँ !
लेकिन जिस आँगन में खेली,
उस आँगन को कैसे भूलूँ !
उपकृत होकर अपकार करे
माटी का यह, स्वभाव नहीं !
संबंध नहीं, व्यापार हैं वो
अपनों - सा जहाँ बर्ताव नहीं !

जब पलकों में पलनेवाले,
सपनों के टुकड़े हो जाएँ !
जिनसे जोड़ा दो हृदयों को,
वो टाँके उधड़े हो जाएँ !
तब लगता है, इस दुनिया में
निश्छलता का निर्वाह नहीं।
संबंध नहीं, व्यापार हैं वो
अपनों - सा जहाँ बर्ताव नहीं !

व्याकुलता के, चंचलता के,
अस्थिरता के, भावुकता के !
ऐसे पल भी निस्सार नहीं,
वे हैं प्रमाण मानवता के !
क्या निर्मल होगा गंगाजल
गंगा में यदि, प्रवाह नहीं !
संबंध नहीं, व्यापार हैं वो
अपनों - सा जहाँ बर्ताव नहीं !

आह्लाद - विह्वलता का संगम,
हो अश्रु - हास्य का जहाँ मिलन !
उस पावन क्षण में जीने को,
देवों का भी करता है मन ।
है वही प्रार्थना शुभकारी
जिसमें पाने की चाह नहीं !
संबंध नहीं, व्यापार हैं वो
अपनों - सा जहाँ बर्ताव नहीं !

15 टिप्‍पणियां:

  1. आहा दी बेहद हृदयस्पर्शी भावपूर्ण रचना है।
    आपकी सभी रचनाएँ मुझे बेहद प्रिय है। मन के सुप्त भाव जागृत कर जाती हैं दी।
    आपकी रचनाओं की प्रतीक्षा रहती है।
    सादर।

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    1. प्रिय श्वेता,नवंबर महीने से जनवरी तक स्कूल में अनेक कार्यक्रमों का आयोजन, साथ ही दसवीं कक्षा की पूर्वपरीक्षाओं की कापियाँ जाँचने की व्यस्तता रही। पिछली अनेक रचनाओं पर आपके कमेंट का जवाब और धन्यवाद भी नहीं दे पाई। फिर भी आप हमेशा मेरी रचनाओं को पसंद करती हैं। बहुत सा स्नेह और आभार।

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  2. प्रिय मीना बहन , आपकी भावों से भरी रचना में आपने एक साथ जीवन के कई सजा दिए |कृतज्ञता ही जीवन का मूल नैतिक आधार है तो कृतघ्नता एक घोर अधर्म |जहाँ कृतज्ञता है वहीँ ऐसी निर्मल प्रार्थना ह्रदय से निसृत हो गंगाजल से प्रवाह में बहती हुई , प्रार्थी के साथ सुनने वालों को भी शुभता का उपहार देती है | जीवन में दो रंग समानांतर चलते हैं | हँसी-ख़ुशी , दिन -रात , आशा - निराशा , धूप-छाँव इत्यादि के साथ जीवन निरंतर गतिमान है |और इसी के साथ साथ चलती है अमूर्त और अरूप प्रार्थना , जो अदृश्य होते हुए भी तन -मन को शुभता से भर अपना असर दिखाए बिना नहीं रहती और साथ में मन का मैल धोने में पीछे नहीं रहती | बहुत भावपूर्ण और ह्रदय की गहराई से उपजे इस भावपूर्ण सृजन के लिए हार्दिक शुभकामनायें |

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    1. प्रिय रेणु, आपके विस्तृत विवेचन से मैं बहुत प्रभावित होती हूँ। किसी की रचना को पढ़कर उस पर अपने विचारों और भावों का इतना सुंदर प्रकटीकरण करने की इस कला का मुझमें नितांत अभाव है। मैं तो बस हृदय से लिखती हूँ दिमाग से लिखना नहीं आता। आपके स्नेह और लगातार साथ के लिए धन्यवाद। सस्नेह।

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  3. बहुत ही सुन्दर और भावप्रवण रचना

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    1. प्रिय अभिलाषाजी, आपके प्रोत्साहित करनेवाले शब्द सदैव मेरा लगातार उत्साहवर्धन करते हैं।हृदयपूर्वक आभार और स्नेह।

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  4. मीना दी..
    मनुष्य को एक बात सदैव याद रखना चाहिए कि ईश्वर को छोड़ न कोई अपना है और न ही अपनो- सा है। जो भी लौकिक संबंध है , वह सब व्यापार है, हमारा मोह है और
    एक लिप्सा है , परंतु जब ठोकर लगता है और हमारी निश्छल भावनाओं को कुचल कर कोई वाह-वाह ! कर मुस्कुराता है,तब हृदय में जो ग्लानि उत्पन्न होती है, वही एकमात्र प्रार्थना है..
    तब वह उस दीनबंधु से कहता है - हे गोविंद राखो शरण..
    यह मैं अपनी अनुभूति बता रहा हूँ , आपकी भावपूर्ण सृजन ने बीते दिनों को पुनः स्मरण करा दिया है।
    आपकी लेखनी को नमन।

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    1. आपकी बात सही है किंतु अपनेपन में और निश्छल प्रेम में कोई शर्त नहीं होती और ना कोई आकांक्षा ! माँ ने बचपन से यही सिखाया था कि तुम बस इतना खयाल रखो कि तुम्हारी वजह से किसी का मन ना दुखे। मैं तो "तेरी करनी तेरे हाथ, मेरी करनी मेरे हाथ" में ही विश्वास रखती हूँ। आपका बहुत बहुत आभार शशि भैया।

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  5. बहुत ही भावप्रवण हृदयस्पर्शी सृजन...
    इजाजत न लेकर सीधे शेयर कर रही हूँ अपनी वाल पर...।क्या करूँ आपकी कृति है ही इतनी लाजवाब....
    वाह!!!!

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    1. बहुत बहुत आभार शेयर करने के लिए....इसमें इजाजत लेने की क्या बात है प्रिय सुधा,जब आपने पढ़ा तब रचना आपकी हो गई !!!

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  6. मीना दी, दिल को छूती बहुत ही सुंदर रचना।

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    1. प्रिय ज्योति दीदी, बहुत बहुत धन्यवाद। आप मेरे ब्लॉग पर आकर सदैव प्रोत्साहन देती हैं। मेरा स्नेह आपके लिए....

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