मशीनों और वाहनों का
रात-दिन गरजना,
रात-दिन गरजना,
घंटे-घड़ियालों, लाउडस्पीकरों का
शाम-सबेरे चीख-चीखकर
अपने-अपने धर्म की घोषणा करना,
रेलगाड़ियों का धड़धड़ाना !
कक्षा से मेरे निकलते ही बच्चों द्वारा
बेंचों का पीटे जाना,
मुँह पर लगे तालों को खोल-खोलकर
कक्षा के फर्श पर पटकना,
चिल्ला-चिल्लाकर मेरे अनुशासन
की धज्जियाँ उड़ाना !
हजारों तरह के भोंपुओं का बजना,
कुत्तों का भौंक-भौंककर
मानव के आस्तित्व को धता बताना !
शक्ति प्रदर्शन, अधिकारों की माँग करते
नारों और जयजयकारों का गरजना !
गाहे-बगाहे, वजह-बेवजह
ढोल नगाड़ों का बजना
भीड़ का बजबजाना !
उफ ! ये शोर !!!
ढोल नगाड़ों का बजना
भीड़ का बजबजाना !
उफ ! ये शोर !!!
नाजायज औलाद की तरह
पैदा होता है यह कानफाड़ू शोर !
कोई नहीं लेता इसका जिम्मा
कोई नहीं लेता इसका जिम्मा
फिर भी ये पलता रहता है,
बढ़ता रहता है, बढ़ता ही जाता है !
ये शोर मेरे कानों में गूँजता है,
मेरी आत्मा को दबोच लेता है,
मस्तिष्क पर हथौड़े सा प्रहार कर,
मस्तिष्क पर हथौड़े सा प्रहार कर,
मेरी कल्पनाओं का अपहरण कर
विचार शक्ति को सुन्न कर,
अंधेरी खाई में खींच ले जाता है मुझे !
इसके भय से बंद रखती हूँ
खिड़कियाँ, दरवाजे, रोशनदान !
ये शोर मुझे पागल कर देगा
एक प्रेतात्मा की तरह
मेरे प्राणों को खींचता,
मेरा खून चूसता ये शोर !
मेरा खून चूसता ये शोर !
मैं अब इसके साथ जीने के लिए
मजबूर हो चुकी हूँ !
मद्धम, मृदुल, मधुर और
सुकोमल आवाजों के लिए
बहरी हो चुकी हूँ !!!
मजबूर हो चुकी हूँ !
मद्धम, मृदुल, मधुर और
सुकोमल आवाजों के लिए
बहरी हो चुकी हूँ !!!
मुझे और कुछ नहीं सुनाई देता
ना वसंत की पदचाप
ना तुम्हारी पदचाप
ना मुहब्बत की पदचाप !!!
एक और शोर है दी
जवाब देंहटाएंमन का शोर !
इससे कैसे बचा जाए ?
स्नेहीजनों के तिरस्कार का शोर..
और स्मृतियों में छिपा अनगिनत शोर
जो समय- समय पर बाहर आ जाता है..
आदरणीय शशिभाई,मुझे तो लगता है कि मन के शोर से बचना अधिक आसान है। हमारे पास ध्यान,चिंतन,मनन, स्वयं को व्यस्त रखना,ईश्वर की शरण में रहना,जप जाप करना,दूसरों को खुशियाँ बाँटना....आदि बहुत से साधन है। हमारे मन के शोर पर हमारा नियंत्रण हो सकता है यदि हम चाहें तो ! लेकिन ये बाहरी शोर हमारे नियंत्रण में नहीं है इसलिए यही मेरी नजर में ज्यादा खतरनाक है।
हटाएंमन के शोर को हावी न होने देना ही सर्वोत्तम उपाय है। आपका ब्लॉग पर आकर उत्साह बढ़ाना बहुत खुशी देता है और आपकी टिप्पणी मुझे रचना के पुनरावलोकन को बाध्य कर देती है !
आपने मुझे यह मान दिया दी,मैं तो बस इसी से आनंदित हूँ, मन के शोर को तनिक विराम मिल गया..
हटाएंपरंतु मन का यह शोर जिस दिन थम जाएगा न दी, हमारे सृजन का रंग भी बदल जाएगा ..
पता नहीं आप इससे सहमत हैं अथवा नहीं..
बिल्कुल सहमत हूँ। मेरी एक कविता इसी ब्लॉग पर है - 'मैंने दर्द को बोकर अपने गीत उगाए है !'
हटाएंव्याकुल पथिक: पंखुड़ी https://gandivmzp.blogspot.com/2020/02/blog-post_6.html?spref=tw
जवाब देंहटाएंकृपया मेरा यह पोस्ट एक बार पढ़ ले दी,
मन के शोर ने ही यहाँ मेरा मार्गदर्शन किया है।
जी जरूर। वैसे भी आपकी सभी पोस्ट अच्छी होती हैं और भावपूर्ण भी।
हटाएंकविता का अंत विशेष तौर पर सराहनीय है.
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया सर। आपके दो शब्द भी मनोबल बढ़ाने के लिए पर्याप्त हैं।
हटाएंवैसे आजकल सच में मेरे चारों ओर बहुत शोर है जिसने ये लिखने को प्रेरित किया।
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में सोमवार 10 फरवरी 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आदरणीया यशोदा दीदी।
हटाएंमैं अब इसके साथ जीने के लिए
जवाब देंहटाएंमजबूर हो चुकी हूँ !
मद्धम, मृदुल, मधुर और
सुकोमल आवाजों के लिए
बहरी हो चुकी हूँ
यथार्थ ,मद्धम, मृदुल, मधुर आवाज़ों की बस कल्पना भर कर सकते हैं ,
बहुत ही सुंदर ,हृदयस्पर्शी सृजन ,सादर नमन आपको
प्रिय कामिनी, ये रचना बहुत गंभीरता से नहीं लिखी गई। जहाँ मैं अब रहने आई हूँ उस इमारत के सामने लोहे का एक कारखाना है। पास ही एक स्कूल है। बाजू से सड़क भी गुजरती है। ये शोर सच में परेशान कर दे रहा है। भारत में हम ध्वनि प्रदूषण को बिल्कुल गंभीरता से नहीं लेते।
हटाएंइतनी सादी रचना पर आपकी ये प्रतिक्रिया आपके स्नेह की परिचायक है। सस्नेह आभार।
सच में ऐसे शोर ने चिंतन मनन का अपहरण ही कर दिया हैं इसी शोर के रहते पता ही नहीं चलता कब रितुएं बदल गयी
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर सार्थक सारगर्भित सृजन
वाह!!!
हाँ सुधाजी, और ऐसे में आसपास कोई उत्सव या शादी ब्याह हुआ तो करेला, वो भी नीम चढ़ा !
हटाएंआपका बहुत बहुत आभार ! सस्नेह।
जीवन की आपाधापी में सचमुच इतना कोलाहल है कि हम जो महसूस करना चाहते है उसके लिए समय और एकांत दोनों का अभाव होता है । महानगरीय जीवन का यथार्थ बहुत सहज और सुन्दर शब्दो में उकेरती सुन्दर रचना ।
जवाब देंहटाएंरचना के मर्म को समझने के लिए बहुत बहुत आभार मीनाजी
हटाएंप्रिय मीना, इस सदी का ये भयंकर शोर क्या करेगा ? समझ नहीं आता | पहले ही खुशियाँ मनती थी | शोक दुःख में लोग ऊँची आवाज में रेडियो तक नहीं सुनते थे | दूसरे के दुःख में मौन हो जाना शिष्टाचार था और साथ ही सामाजिक सुसंस्कार भी |पर आज सिर्फ शोर है | मन मुग्धता ने आम इंसान को किसी हद तक बहरा सा बना दिया है | सार्थक रचना वो भी बड़े रोचक अंदाज में | सस्नेह शुभकामनाएं|
जवाब देंहटाएंप्रिय रेणु, मैं भुक्तभोगी हूँ। दूसरी बात,शोर के साथ एडजस्ट नहीं कर पाती। मेरे परिवार के अन्य लोग कर लेते हैं। मुझे कहते हैं असहनशील। अब बताइए मैं क्या करूँ ? इसलिए लिखकर मन हल्का कर लिया। सस्नेह धन्यवाद रेणु।
हटाएंअब आपकी कोरोना ने सुन ली😀. बहुत सार्थक 'शोर' इस 'संगीत' के कलरव युग में।
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