शनिवार, 29 फ़रवरी 2020

पतवार तुम्हारे हाथों है

पतवार तुम्हारे हाथों है,
मँझधार का डर क्यों हो मुझको ?
इस पार से नैया चल ही पड़ी,
उस पार का डर क्यों हो मुझको ?

जीवन की अँधेरी राहों पर
चंदा भी तुम, तारे भी तुम ।
सूरज भी तुम, दीपक भी तुम,
अँधियार का डर क्यों हो मुझको ?

मैं पतित, मलीन, दुराचारी,
तुम मेरे गंगाजल कान्हा !
घनश्याम सखा तुम हो मेरे,
संसार का डर क्यों हो मुझको ?

जग तेरी माया का नाटक
तूने ही पात्र रचा मेरा,
जिस तरह नचाए, नाचूँ मैं
बेकार का डर क्यों हो मुझको ?

मैं कर्तापन में भरमाया
तू मुझे देखकर मुस्काया,
जब सारा खेल ही तेरा है
तो हार का डर क्यों हो मुझको ?

संसार का प्रेम है इक सपना,
है कौन यहाँ मेरा अपना !
तू प्रेम करे तो दुनिया के
व्यवहार का डर क्यों हो मुझको ?


32 टिप्‍पणियां:

  1. पतवार तुम्हारे हाथों है,
    मँझधार का डर क्यों हो मुझको ?
    इस पार से नैया चल ही पड़ी,
    उस पार का डर क्यों हो मुझको ?

    बहुत सुंदर ,जब पतवार प्रभु के हाथ दे दी तो भय की कोई गुंजाइश ही नहीं रही ,लाज़बाब सृजन ,सादर नमन मीना जी

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  2. अब सौंप दिया इस जीवन का, सब भार तुम्हारे हाथों में।
    है जीत तुम्हारे हाथों में, और हार तुम्हारे हाथों में॥

    यह एक भजन है मीना दी , इसे गुनगुनाने से हृदय की व्याकुलता कम होती है।

    आपका सृजन में भी कुछ ऐसा ही भाव है दी।

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    1. हाँ, ये भजन मेरी नानी गाती थीं। धन्यवाद शशिभाई।

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  3. जग तेरी माया का नाटक
    तूने ही पात्र रचा मेरा,
    जिस तरह नचाए, नाचूँ मैं
    बेकार का डर क्यों हो मुझको ?
    वाह!!!!
    उस अभियन्ता के हवाले कर दें खुद को तो सारे डर खत्म हो जायें
    बहुत ही सुन्दर सारगर्भित लाजवाब सृजन
    सुन्दर सृजन की अनन्त बधाइयां आपको।

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    1. सराहना एवं उत्साहवर्धन के लिए सस्नेह आभार आपका सुधाजी

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  4. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (02-03-2020) को 'सजा कैसा बाज़ार है?' (चर्चाअंक-3628) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    *****
    रवीन्द्र सिंह यादव

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  5. आदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर( 'लोकतंत्र संवाद' मंच साहित्यिक पुस्तक-पुरस्कार योजना भाग-१ हेतु नामित की गयी है। )

    'बुधवार' ०४ मार्च २०२० को साप्ताहिक 'बुधवारीय' अंक में लिंक की गई है। आमंत्रण में आपको 'लोकतंत्र' संवाद मंच की ओर से शुभकामनाएं और टिप्पणी दोनों समाहित हैं। अतः आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/


    टीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'बुधवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।


    आवश्यक सूचना : रचनाएं लिंक करने का उद्देश्य रचनाकार की मौलिकता का हनन करना कदापि नहीं हैं बल्कि उसके ब्लॉग तक साहित्य प्रेमियों को निर्बाध पहुँचाना है ताकि उक्त लेखक और उसकी रचनाधर्मिता से पाठक स्वयं परिचित हो सके, यही हमारा प्रयास है। यह कोई व्यवसायिक कार्य नहीं है बल्कि साहित्य के प्रति हमारा समर्पण है। सादर 'एकलव्य'

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  6. जी दी आपकी रचनाएँ क़लम से नहीं मन के भावों से गूँथी महसूस होती है सदैव।
    हमेशा की तरह बहुत सुंदर सृजन दी।
    दी रचनाएँ तो आपकी सारी पढ़ती हूँ प्रतिक्रिया भले लिख न पाऊँ।

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  7. ईश्वर के हाथों स्वयं को सौंप कर मुक्त हो जाता है इंसान ...
    कान्हा के क़रीब तो वैसे भी मगन हो जाने का क्षण होता है ...
    बहुत ही सुंदर समर्पित भाव ...

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  8. जीवन की अँधेरी राहों पर
    चंदा भी तुम, तारे भी तुम ।
    सूरज भी तुम, दीपक भी तुम,
    अँधियार का डर क्यों हो मुझको ?....
    ऐसा लगता है ब्लॉग के किसी पृष्ठ पर नहीं मंदिर के प्रांगण में हूँ... बहुत बहुत आभार मीना जी इतनी समर्पित भाव से सृजित रचना के लिए ।

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    उत्तर
    1. इतने सुंदर शब्दों में मेरा मनोबल बढ़ाने के लिए सादर सस्नेह आभार मीना जी

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  9. समपर्ण भाव लिए बहुत ही सुंदर रचना, मीना दी।

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  10. भरपूर विश्वास से ओतप्रोत यह रचना अपना स्पष्ट प्रभाव छोड़ने में समर्थ है

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    उत्तर
    1. आदरणीय सतीश सर, आपकी ब्लॉग पर उपस्थिति से बहुत खुशी हुई। बहुत बहुत धन्यवाद सर।

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  11. उत्तर
    1. आदरणीय ज्योति जी, सादर आभार आपके अनमोल शब्दों के लिए।

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  12. मैं कर्तापन में भरमाया
    तू मुझे देखकर मुस्काया,
    जब सारा खेल ही तेरा है
    तो हार का डर क्यों हो मुझको ?
    वाह! बहुत सुंदर!!

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  13. बहुत अच्छी रचना है ---साफ़ सुथरी सुगठित मजी हुई |

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  14. मीना जी,

    बहुत खूब रचना

    पतवार तुम्हारे हाथों हैं
    जीवन का गीत तुम्ही से है
    जन्म मरण तुम्ही से है
    मेरा आज और कल तुम्ही से है

    पतवार तुम्हारे हाथों हैं
    फिर डर मुझको न किसी का है

    जब पतवार तुम्हारे हाथों है।।
    जब पतवार तुम्हारे हाथों हैं।।

    सधन्यवाद

    💐💐💐





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  15. मैं पतित, मलीन, दुराचारी,
    तुम मेरे गंगाजल कान्हा !
    घनश्याम सखा तुम हो मेरे,
    संसार का डर क्यों हो मुझको ?
    बही खूब प्रिय मीना ,| जब मन को किसी का इतना गहरा अवलंबन मिल रहा हो तो वाकई में डर कैसा ? विशवास का चरम छुती अत्यंत भावपूर्ण प्रभावी रचना | सस्नेह -

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