छोड़कर बचपना
जरा मैच्योर हो जाऊँ
यही चाहते थे ना तुम ?
कोशिश कर रही हूँ।
बस कुछ ही दिनों में
पचासवाँ लग जाएगा,
पचासों तरह की गलतियाँ
अब भी होती रहती हैं।
मैंने शुरू कर दिया है खुद को समेटना
क्योंकि बिखराव तुम्हें पसंद नहीं।
कभी यही बिखराव ले आया था
तुम्हारी दुनिया में,
बिखरे हुए कुछ टुकड़े छिटककर
तुम्हारे कदमों में पड़े थे,;
उन टुकड़ों पर पैर रख
तुम आगे बढ़ गए।
यहाँ सबको अपने बिखरे टुकड़े
खुद उठाने पड़ते हैं,
फिर उन्हें खुद ही जोड़ना पड़ता है।
बचपन में कागज का फटा नक्शा
जोड़ने की कवायद, तुमने भी की होगी।
वो आसान था, क्योंकि उसके पीछे
एक आदमी बना होता था
आदमी जोड़ दो, नक्शा जुड़ जाता था।
इन बिखरे टुकड़ों के पीछे
कोई आदमी नहीं बना है ना !
समय लगेगा, जोड़ लूँगी।
फिर एक बार, अब ना रुकूँगी !
जरा मैच्योर हो जाऊँ
यही चाहते थे ना तुम ?
कोशिश कर रही हूँ।
बस कुछ ही दिनों में
पचासवाँ लग जाएगा,
पचासों तरह की गलतियाँ
अब भी होती रहती हैं।
मैंने शुरू कर दिया है खुद को समेटना
क्योंकि बिखराव तुम्हें पसंद नहीं।
कभी यही बिखराव ले आया था
तुम्हारी दुनिया में,
बिखरे हुए कुछ टुकड़े छिटककर
तुम्हारे कदमों में पड़े थे,;
उन टुकड़ों पर पैर रख
तुम आगे बढ़ गए।
यहाँ सबको अपने बिखरे टुकड़े
खुद उठाने पड़ते हैं,
फिर उन्हें खुद ही जोड़ना पड़ता है।
बचपन में कागज का फटा नक्शा
जोड़ने की कवायद, तुमने भी की होगी।
वो आसान था, क्योंकि उसके पीछे
एक आदमी बना होता था
आदमी जोड़ दो, नक्शा जुड़ जाता था।
इन बिखरे टुकड़ों के पीछे
कोई आदमी नहीं बना है ना !
समय लगेगा, जोड़ लूँगी।
फिर एक बार, अब ना रुकूँगी !
'यहाँ सबको अपने बिखरे टुकड़े
जवाब देंहटाएंखुद उठाने पड़ते हैं'
यहीं तो सत्य है जीवन का! सुंदर जज़्बात!
दिल से निकली भावनाओं की सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (04 मई 2020) को 'बन्दी का यह दौर' (चर्चा अंक 3691) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
*****
रवीन्द्र सिंह यादव
यहाँ सबको अपने बिखरे टुकड़े
जवाब देंहटाएंखुद उठाने पड़ते हैं
फिर उन्हें खुद ही जोड़ना पड़ता है।
फिर भी आश लगाते हैं किसी की कोई आकर हमें समेट लेगा....कोई आता तो है पर समेटने नहीं और तोड़ने जैसे कब से इसी बिखरन के इन्तजार में था...
बहुत ही सुन्दर भावपूर्ण सृजन।
वाह क्या बात है रुकना भी नहीं है यात्रा जारी रहे शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंइन बिखरे टुकड़ों के पीछे
जवाब देंहटाएंकोई आदमी नहीं बना है ना !
समय लगेगा, जोड़ लूँगी।
फिर एक बार, अब ना रुकूँगी !
ऊर्जावान और प्रेरक भावों से सम्पन्न अति ऊत्तम भावाभिव्यक्ति मीना जी !
यहाँ सबको अपने बिखरे टुकड़े
जवाब देंहटाएंखुद उठाने पड़ते हैं,
फिर उन्हें खुद ही जोड़ना पड़ता है।
बहुत खूब ,बिखेरना तो सबको आता हैं मगर समेटना तो खुद ही खुद को होता हैं।
बेहतरीन अभिव्यक्ति मीना जी ,सादर नमन
बहुत भावपूर्ण रचना प्रिय मीना । एक मन की अनकही कसक जो शायद हर इंसान के मन में व्याप्त रहती है , शब्दों में जीवंत हुई है। कोई ठेस लगाए तो खुद के बिखरे अस्तित्व को इंसान स्वयं ही समेटताहै क्योकि चलना जीवन का दूसरा नाम है रुकना नहीं। स्वयं को ही प्रेरित करती भावपूर्ण रचना के लिए हार्दिक शुभकामनायें👌👌👌🌹🌹🌹💐💐🌹🌹
जवाब देंहटाएंवाह! ओजपूर्ण सकारात्मक विचार उत्पन्न करती सुंदर अभिव्यक्ति जो जीवन की कश्मकश में फ़ैसले का आधार तय करती हुई मन को रंजित करती हुई अनेक प्रश्नों को भी जन्म देती है.
जवाब देंहटाएंबधाई हो आदरणीया मीना दीदी इस सुंदर सृजन के लिए.
बहुत खूब ... मन की बात को कहने का प्रयास है ये रचना ... सच है हर किसी को अपने अपने भाग के टुकड़े उठाने होते हैं ... पर कई बार क्यों उठाना ... जो है उसे क्यों न बचा के रखें ...
जवाब देंहटाएंफटे नक़्शे हर किसी को जोड़ने ही पड़ते हैं! बढ़िया
जवाब देंहटाएंअति सुंदर रचना ....।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ....।
🙏🏻🙏🏻
Bhut khusurat rachanaye hai aapki
जवाब देंहटाएंHal hi maine blogger join kiya hai aapse nivedan hai ki aap mere blog me aaye,mere post padhe aour mujhe sahi disha nirdesh kre
https://shrikrishna444.blogspot.com/?m=1
नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा सोमवार (27-07-2020) को 'कैनवास' में इस बार मीना शर्मा जी की रचनाएँ (चर्चा अंक 3775) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्त्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाए।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
हमारी विशेष प्रस्तुति 'कैनवास' (संपूर्ण प्रस्तुति में सिर्फ़ आपकी विशिष्ट रचनाएँ सम्मिलित हैं ) में आपकी यह प्रस्तुति सम्मिलित की गई है।
--
-रवीन्द्र सिंह यादव
वाह
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