बुधवार, 31 जनवरी 2018

प्रभातकाल

 प्रभातकाल -
ज्योतिपुंज वह भव्य भास्कर
रश्मिकोष को लुटा रहा,
काट तेज की तलवारों से
तमस,कुहासा हटा रहा !

अनगिन नक्षत्रों पर भारी
एक अकेला ही रविराज,
लज्जित हो निशिकांत छिप गया
बजने लगे विजय के साज !

पुलक - पुलककर भानुप्रिया ने
किए निछावर मुक्ताथाल,
आँचल में समेटकर मोती
दूर्वा - तृणदल हुए निहाल !

स्वर्णजटित पट पहन सजे
मेघों ने बढ़कर की जुहार,
विरुदावली सुनाते पंछी
पवन बजाती मधुर सितार !

पुष्प बिछाकर सतरंगी, तब
हरे मखमली कालीनों पर,
कनक मुकुट धारण कर तरुवर
स्वागत हेतु हुए तत्पर !

अब पहन राजसी वेष चला
साम्राज्य निरीक्षण को सत्वर,
कर्मोद्यत करने सृष्टि को
स्वयं कर्मरत हुआ दिवाकर !

3 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी यही शब्द संपदा और सही चयन कविता में चार चाँद लगा देती है। मैं यहाँ पहुंचने की सोच भी नहीं सकता। आपकी ऐसी कविता पढ़कर बहुत खुशी होती है कि मैं कभी इनको सुझाव देता था। ईश्वर आपको सदा आशीर्वाद दें कि आपका साहित्य चहुँ दिशा चमके।
    खुश रहें, लिखते रहें। सुभाशीष।

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  2. सुंदर और मोहक शब्द लालित्य। बधाई 🌹

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