पेड़ों के टूटे पत्ते, कागज,
टूटी छितरी डालियाँ
कर इकट्ठा सुलगा दीं किसी ने !
सिमटे - ठिठुरते भिखमंगों,
अधनंगे फुटपाथियों की
सारी ठंड बटोरकर,
काँपता रहा अलाव !!!
पिता के झुकते कंधे,
माँ की उम्मीदभरी आँखें
कैसे करे वो सामना ?
आज भी ना मिली नौकरी !
तमाम डिग्रियाँ,आग में झोंककर
लगाया उसने जोरदार कहकहा,
सिसकता रहा अलाव !!!
अधभरे पेट से छल करते,
अलाव के चारों ओर
थिरकते पैर, बजती खंजड़ी,
चूल्हे पर खदबदाती खिचड़ी !
रैनबसेरा करते खानाबदोश
चल देंगे सुबह नए ठिकाने,
बंजारा हो गया अलाव !!!
टूटी छितरी डालियाँ
कर इकट्ठा सुलगा दीं किसी ने !
सिमटे - ठिठुरते भिखमंगों,
अधनंगे फुटपाथियों की
सारी ठंड बटोरकर,
काँपता रहा अलाव !!!
पिता के झुकते कंधे,
माँ की उम्मीदभरी आँखें
कैसे करे वो सामना ?
आज भी ना मिली नौकरी !
तमाम डिग्रियाँ,आग में झोंककर
लगाया उसने जोरदार कहकहा,
सिसकता रहा अलाव !!!
अधभरे पेट से छल करते,
अलाव के चारों ओर
थिरकते पैर, बजती खंजड़ी,
चूल्हे पर खदबदाती खिचड़ी !
रैनबसेरा करते खानाबदोश
चल देंगे सुबह नए ठिकाने,
बंजारा हो गया अलाव !!!
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
१६ दिसंबर २०१९ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
बेहतरीन रचना
जवाब देंहटाएंवाह!मीना जी ,बहुत खूब !! सुंदर भावाभिव्यक्ति ।
जवाब देंहटाएंबहुत ही मार्मिक सृजन ,सादर नमस्कार आपको
जवाब देंहटाएंबेहद खूबसूरत एवं मार्मिक प्रस्तुति सखी।सादर नमन आपको।
जवाब देंहटाएंमर्मस्पर्शी रचना मीना जी ।
जवाब देंहटाएंसटीक ।