शुक्रवार, 30 दिसंबर 2016

वटवृक्ष और जूहीलता

गाँव की कच्ची पगडंडी के किनारे बहुत से वृक्ष थे. नीम, पीपल, कनेर, बहुत सारे. पर उनमें खास था एक बरगद का पेड़ - बहुत बड़ा, विशाल और बहुत ही पुराना. इस बरगद की छाँव बहुत शीतल होती थी. इतनी शीतल कि गर्मी में लू की यहाँ फटकने की हिम्मत भी नहीं होती थी. जानें कितने प्राणी, कितने जीव उस वटवृक्ष की छाया में विश्राम पाते, आश्रय लेते और कई तो थकान मिटाकर, अपनी आगे की राह चल देते.

 कुछ का तो स्थायी निवास भी था उस पर. कीड़े - मकोड़े, पंछी, गिलहरियाँ, बंदर सभी अपनी - अपनी गतिविधियों से वटवृक्ष की गंभीरता भंग करते थे. पर फिर भी वह वटवृक्ष निर्विकार, निश्चल खड़ा सबको अपना अपना हक लेने देता

.....बिना माँगे भी ...

एक खुशनुमा सुबह वटवृक्ष की निगाह अपनी जड़ों पर गई. अक्सर वहां सूखे पत्तों का ढेर लगा रहता था, वहां कुछ कीड़े - मकोड़े, चींटे रेंगते रहते . कुछ गिलहरियाँ चहल कदमी करती रहती थी. लेकिन आज वहाँ कुछ नया था ! चार नन्हीं - नन्हीं नई हरी चमकती पत्तियाँ और जड़ों के सहारे ऊपर चढ़ने का प्रयत्न करती कच्ची कोंपलें !

वटवृक्ष ने सोचा, ओह! ये तो कोई बेल है, यह यहाँ कैसेऔर कब उग आई ? चलो अब जो भी हो, जैसे भी हो अब आ गई है तो अब इसे सँभालना मेरा कर्तव्य है. यही सोच कर वटवृक्ष ने अपनी एक शाखा से उस बेल के निकट कुछ पत्ते टपकाए जिससे कि वह उन शैतान प्राणियों की नजर से छुपी रहे. उसे डर था कि ये शैतान प्राणी कहीं बेल को तोड़ ना दें.

बेल की सुरक्षा अब वटवृक्ष का रोजाना का काम हो गया था. धीरे - धीरे उस वटवृक्ष के पत्तों की आड़ में संरक्षित वह बेल लटकती जटाओं - जड़ों के सहारे बढ़ने लगी. कुछ ही दिनों में वह वटवृक्ष की लाड़ली बन गई. गंभीर रहने वाले उस वटवृक्ष के चेहरे पर भी खुशी झलकने लगी. सभी प्राणी भी इस परिवर्तन से हतप्रभ थे और सोचते कि इसका राज क्या है?

जब बेल वटवृक्ष पर  थोड़ा ऊपर पहुँची तो वटवृक्ष को पता चल गया कि यह तो जूहीलता है और समय आने पर यह सुंदर, सुवासित फूलों से इस परिसर को महकाएगी. पर वटवृक्ष  को इस बात की चिंता थी कि वह यहाँ बचकर कैसे रह पाएगी. क्या यह शैतान प्राणी इसे जीने देंगे ?

वानरसेना की उछलकूद और गिलहरियों की भागदौड़ से अब वटवृक्ष की साँस अटक सी जाती. ना जाने कब टूट जाए वह छोटी सी बेल इन शैतानों की धमाचौकड़ी में !

उधर जूही के नन्हें ओठों से शब्द फूटने लगे. वह रात - रात भर वटवृक्ष से बातें करती. कभी मूक मौन संवाद चलता, कभी खामोशी बोलती और कभी नाजुक पत्तों की ह्ल्की सरसराहट वटवृक्ष के कानों में कुछ कह जाती.

जूही अपनी धुन में वटवृक्ष के साथ जुड़ती, उसकी शाखाओं से लिपटती बढ़ती जा रही थी. बिछड़ना क्या होता है इससे बिल्कुल बेखबर ! किंतु वटवृक्ष ने दुनिया देखी थी, बिछोह की कल्पना थी उसे !

इसीलिए वह नित्य प्रभु से प्रार्थना करता कि जूहीलता को कोई योग्य संरक्षक मिल जाए. कुछ समय पहले ही उसने खुद सुना था कि यहाँ एक पक्की सड़क बनने वाली है और उसके लिए कुछ पेड़ काटे जा सकते हैं . हो सकता है उसे भी अपनी कुर्बानी देनी पड़े !

वह चिंतित था क्योंकि वानर, गिलहरी व अन्य कीड़े मकोड़े तो अपना निवास बदल लेंगे, पर इस जूही के लिए ऐसा संभव न था . आखिर उसकी प्रार्थना भगवान ने सुन ली .एक दिन उस राह एक राहगीर गुजरा. थकाहारा वह भी सबकी तरह वटवृक्ष की छाँव तले आराम करने लगा. वटवृक्ष की शीतल छाँव में कुछ ही देर में उसे नींद आ गई. जब आँख खुली तो उसकी नजर अचानक जूहीलता पर पड़ी.

अरे ! यह इतनी सुंदर बेल यहाँ ? यहाँ तो यह ऐसे ही नष्ट हो जाएगी, इसे तो मेरे उद्यान में होना चाहिए ....

बस! फिर क्या था? उस राहगीर ने जूहीलता को जड़ों से उखाड़ लिया कि वह उसे ले जाकर अपने उद्यान में रोप सके. जूहीलता को वटवृक्ष से बिछड़ना मंजूर न था. पर कौन सुनता उसका क्रंदन ? वटवृक्ष से गुहार लगाई किंतु वह तो शाँत खड़ा रहा... निश्चल.... निर्विकार ...!

जूहीलता के कुछ हिस्से वटवृक्ष में ऐसे उलझे लिपटे थे कि उन्हें तोड़ देना पड़ा. जूही का क्रंदन बढ़ता गया. एक छूटने का दर्द और दूसरा टूटने का ! वटवृक्ष तो खामोश खड़ा था. उसने राहगीर को रोकने की कोशिश तक नहीं की.

 उस अजनबी ने जूही को अपने साथ ले जाकर अपने खूबसूरत उद्यान के सबसे सुंदर स्थान पर लगा दिया. रोज पानी देता और जूहीलता का खास ख्याल करता लेकिन....
 क्या जी पाएगी जूहीलता उस नए सुरक्षित स्थान पर ?

       .....साँसें तो वहीं रह गईं थीं !!!

( चित्र गूगल से साभार )

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