रविवार, 4 दिसंबर 2016

मैं और घड़ी


मैं और घड़ी 

घड़ी के काँटे
जीवन के पल - क्षण
सबमें बाँटें !

घड़ी की टिक - टिक
कहती है ना रुक
थकना मना !

इसके इशारों पर
चलती हूँ यंत्रवत
स्वयंचालित !

अब तो बने ज्यों
इक - दूजे की खातिर
मैं और घड़ी !

सुइयों से अपनी
बाँधकर लेती है
अनगिन फेरे !

वक्त की चेतावनी
ऋतु है मनभावनी
जाएगी बीत !

उनका है साथ जब
घड़ी - घड़ी फिर क्यूँ
घड़ी देखे !
-------------------------



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें