गुरुवार, 22 दिसंबर 2016

मत समर्पण कर !



मत समर्पण कर

मत समर्पण कर,
अब किसी के सामने
खुद को न अर्पण कर !
मत समर्पण कर ।

देवता के चरण में
तू फूल बनकर बिछ गई,
पर क्या मिला ?
फेंका गया, तू रह गई
निर्माल्य बनकर !
मत समर्पण कर ।
अब किसी के सामने....

सिंधु से करने मिलन
तू बन नदी, दौड़ी गई बाँहें पसारे
क्या मिला ?
नाम भी खोया, मधुरता भी गई
खारा हुआ जल !
मत समर्पण कर ।
अब किसी के सामने....

नवसृजन की चाह में,
तू बन धरा सहती रही हर बोझ को
पर क्या मिला ?
घायल हुई, बाँटी गई तू
रह गई आस्तित्व खोकर !
मत समर्पण कर ।

अब किसी के सामने
खुद को न अर्पण कर !
मत समर्पण कर ।।

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