सोमवार, 12 दिसंबर 2016

साथ है वही तनहाई


साथ है वही तनहाई 
इर्द - गिर्द लोग हैं हजारों
साथ है मगर वही तनहाई,
ज़िंदगी लगे कभी तो नाटक
और कभी लग रही सच्चाई ।।

सूर्य अपनी रश्मियों से छूकर
अब कली कली जगा रहा,
बादलों में कोई तो चितेरा
चित्र है नए बना रहा...
किंतु मेरे नयन जिसे ढूँढ़ें
वही नहीं पड़ रहा दिखाई,
जिंदगी लगे कभी तो नाटक
और कभी लग रही सच्चाई ।।


अजनबी हाथों की डोर पर ये
नाचती है कठ-पुतलियाँ,
रच रहा कोई, किसी कलम से
बन रही नई कहानियाँ...
वह पुकार स्नेह भरी फिर क्यों
आज नहीं पड़ रही सुनाई,
जिंदगी लगे कभी तो नाटक
और कभी लग रही सच्चाई ।।

वक्त का पंछी थका - थका सा
भूलकर उड़ान कहीं बैठा,
चाँद भी है आज खोया - खोया
चाँदनी से जैसे रूठा - रूठा...
बन गई हैं ओस वही बूँदें
चाँद ने जो नैनों से बहाईं,
जिंदगी लगे कभी तो नाटक
और कभी लग रही सच्चाई ।।

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