गुरुवार, 8 दिसंबर 2016

नहीं आता.


नहीं आता

रहते हैं इस जहान में, कितने ही समझदार !
हम बावरों को क्यूँ यहाँ, रहना नहीं आता ?

कोई कहाँ बदल सका, इन अश्कों की फितरत !
ये बह चले तो बह चले, रुकना नहीं आता ।

धागा कोई उलझे तो, सुलझ जाएगा इक दिन
रिश्ता कभी उलझे तो, सुलझना नहीं आता ।

इतना ना जोर दे, बड़ी नाजुक है ये डोरी !
जो टूट गई इसको फिर, जुड़ना नहीं आता ।

रहता है जाने कौन, इस पत्थर के मकाँ में !
दिखता है दिल-सा, फिर भी धड़कना नहीं आता ।

भटकी जो नाव, बह गई दरिया में इस कदर !
फँस करके इस भँवर में, निकलना नहीं आता ।

अब कौन से लफ्जों में कहें, उनसे हाल-ए-दिल !
बेहतर यही कि मान लें, कहना नहीं आता।।


6 टिप्‍पणियां:

  1. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
    १ अप्रैल २०१९ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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  2. वाह्ह्ह मीना जी बहुत उम्दा भावपूर्ण गजल हर शेर तारीफ ए काबिल। बेहतरीन सृजन।

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  3. है ये कैसा मंज़र
    न जाने कब
    नदी का सौम्य रूप
    नद में बदल जाता |
    हमेशा की तरह बेहतरीन लेखन हेतु साधुवाद आदरणीय ।बहुत-बहुत बधाई ।

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  4. बहुत ही सुन्दर गजल... शानदार शेरों से सजी ...भावपूर्ण...।

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