नहीं आता
रहते हैं इस जहान में, कितने ही समझदार !
हम बावरों को क्यूँ यहाँ, रहना नहीं आता ?
कोई कहाँ बदल सका, इन अश्कों की फितरत !
ये बह चले तो बह चले, रुकना नहीं आता ।
धागा कोई उलझे तो, सुलझ जाएगा इक दिन
रिश्ता कभी उलझे तो, सुलझना नहीं आता ।
इतना ना जोर दे, बड़ी नाजुक है ये डोरी !
जो टूट गई इसको फिर, जुड़ना नहीं आता ।
रहता है जाने कौन, इस पत्थर के मकाँ में !
दिखता है दिल-सा, फिर भी धड़कना नहीं आता ।
भटकी जो नाव, बह गई दरिया में इस कदर !
फँस करके इस भँवर में, निकलना नहीं आता ।
अब कौन से लफ्जों में कहें, उनसे हाल-ए-दिल !
बेहतर यही कि मान लें, कहना नहीं आता।।
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
१ अप्रैल २०१९ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
वाह्ह्ह मीना जी बहुत उम्दा भावपूर्ण गजल हर शेर तारीफ ए काबिल। बेहतरीन सृजन।
जवाब देंहटाएंहै ये कैसा मंज़र
जवाब देंहटाएंन जाने कब
नदी का सौम्य रूप
नद में बदल जाता |
हमेशा की तरह बेहतरीन लेखन हेतु साधुवाद आदरणीय ।बहुत-बहुत बधाई ।
बहुत सुन्दर आदरणीया
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर गजल... शानदार शेरों से सजी ...भावपूर्ण...।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
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