शनिवार, 26 मई 2018

सावन बोला जेठ से.....

सावन बोला जेठ से
तुम क्यों तपते हो इतना ?
दया नहीं आती तुमको,
धरती का देख झुलसना ?

त्राहि त्राहि करते हैं प्राणी
वृक्षों को झुलसाए हो,
शीतल पवन झकोरों को
तुम कैद कहाँ कर आए हो ?

जेठे हो तुम सब महीनों में
तब ही ज्येष्ठ कहाते हो,
आग लगाकर जल - थल में
कैसा कर्तव्य निभाते हो ?

कहा जेठ ने, सुन भ्राता
तेरी खातिर जलता हूँ,
जल से मेघ सृजन करने को
अग्नि पर चलता हूँ !!!

वसुंधरा की अग्निपरीक्षा
युग युग से लेने को,
शापित हूँ, माँ धरती को
दाहक पीड़ा देने को !!!

अवनी के दारुण तप से जब
प्रकृति प्रसन्न  होती है,
तब मेघों का खोल खजाना,
बरसाती मोती है !!!

माटी के अंतर में कितने
सुप्त स्वप्न पलते हैं,
तपिश जेठ की सहकर ही तो,
गुलमोहर खिलते हैं,






2 टिप्‍पणियां:

  1. बढ़िया प्रस्तुति मीना जी. बहुत सुंदरता से ज्येष्ठ मास की कर्तव्यनिष्ठा को स्थापित किया आपने. बस मनुष्य ही अपने कर्तव्यों से विमुख हो गया है

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