रविवार, 11 जुलाई 2021

मन तू, हो जा रे, अंतर्मुखी !

 मन तू, हो जा रे, अंतर्मुखी !

भागेगा बाहर तो होगा दुःखी !

मन तू, हो जा रे, अंतर्मुखी !


ये माया के मेले, झंझट झमेले

यूँ ही चलेंगे रे ! चलते रहेंगे ।

कितना तू रोकेगा, तेरे ही अपने

तुझको छलेंगे रे ! छलते रहेंगे । 

ना सुधरेगा कोई, ना बदलेगा कोई,

जग से लड़ाई बहुत हो चुकी। 

मन तू, हो जा रे, अंतर्मुखी !


नदिया के जैसे, तू तृष्णा को हर ले

बादल के जैसे, अहं रिक्त कर ले !

फूलों के जैसे, तू महका दे परिसर

वृक्षों के जैसे, स्थितप्रज्ञ बन ले !

तू अब मौन हो जा, मनन में तू खो जा,

प्रभु से लगा के लौ, हो जा सुखी !

मन तू, हो जा रे, अंतर्मुखी !!!


सृजक ने बनाए, घरौंदे सजाए

ये यूँ ही उजड़ते औ' बसते रहेंगे ।

कभी काल के फंदे ढीले भी होंगे

कभी पाश अपना ये कसते रहेंगे ।

जग की ये गाड़ी, चलती रहेगी

ना ये रुकेगी, ना ये रुकी !

मन तू, हो जा रे, अंतर्मुखी !!!




43 टिप्‍पणियां:

  1. ये माया के मेले, झंझट झमेले

    यूँ ही चलेंगे रे ! चलते रहेंगे ।

    कितना तू रोकेगा, तेरे ही अपने

    तुझको छलेंगे रे ! छलते रहेंगे ।

    ना सुधरेगा कोई, ना बदलेगा कोई,

    जग से लड़ाई बहुत हो चुकी।

    मन तू, हो जा रे, अंतर्मुखी !
    मन की व्यथा को व्यक्त करती बहुत ही सुंदर रचना,मीना दी।

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    1. बहुत बहुत आभार ज्योति दीदी। हर रचना पर आपकी मनोबल बढ़ाती टिप्पणी देखकर मन खुश हो जाता है।

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  2. मैं अब ऐसा ही हो चुका हूँ माननीया मीना जी। इसीलिए आपकी यह रचना पढ़कर लगा जैसे यह आपने मेरे लिए ही लिखी हो।

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    1. आप मेरी रचना से स्वयं को जोड़ पाए, यह रचना की सार्थकता है। सादर आभार आदरणीय जितेंद्र माथुर जी।

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  3. ये जीवन ऐसा ही है अकेले आए अकेले जाएँगे। पथ के पड़वों पर या पथ में क ई साथ चलेंगे, क ई साथ छोड़ेंगे।जिसका जितना साथ मैं ले उसे ही अनुभवानुसार खुशनसीबी या बदनसीबी कहलाती है।
    अंतः जीना अकेले ही पड़ता है।

    "यदि तुम्हारी आवाज सुनकर कोई न आए तो अकेले चलो"
    सुभाष बोस ने यही कहा था।

    रचना शायद इसी तथ्य को उजागर करती है।
    अच्छी सीख देती रचना।
    साझा करने हेतु आभार।

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    1. रचना की सार्थक समीक्षा करने एवं मनोबल बढ़ाने हेतु सादर आभार।

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  4. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (12-07-2021 ) को 'मानसून जो अब तक दिल्ली नहीं पहुँचा है' (चर्चा अंक 4123) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। रात्रि 12:01 AM के बाद प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।

    चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।

    यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।

    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।

    #रवीन्द्र_सिंह_यादव

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  5. वाह!बहुत सुंदर 👌
    हमेशा की तरह।
    सादर

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  6. कभी काल के फंदे ढीले भी होंगे

    कभी पाश अपना ये कसते रहेंगे ।
    जग की ये गाड़ी, चलती रहेगी
    ना ये रुकेगी, ना ये रुकी !
    मन तू, हो जा रे, अंतर्मुखी !!!
    जीवन दर्शन पर गहन भावाभिव्यक्ति मीना जी । आपका सृजन बेमिसाल है ।

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    1. रचना की सार्थक समीक्षा करने एवं मनोबल बढ़ाने हेतु सादर आभार आदरणीया मीना जी

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  7. अंतर्मुखी आवाहन और घातक है , जीवन क्षणिक है , जीना होगा और मजबूती से जीना होगा , रास्ता मिलेगा आशा क्यों छोड़ी जाय !
    मंगलकामनाएं आपको !

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    1. मेरे विचार से अंतर्मुखी होना और आशा छोड़ना दो अलग अलग बातें हैं।
      आपके सकारात्मक मार्गदर्शन हेतु बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय सतीश सर, कृपया आगे भी आते रहें।

      हटाएं

  8. ये माया के मेले, झंझट झमेले

    यूँ ही चलेंगे रे ! चलते रहेंगे ।

    कितना तू रोकेगा, तेरे ही अपने

    तुझको छलेंगे रे ! छलते रहेंगे ।

    ना सुधरेगा कोई, ना बदलेगा कोई,

    जग से लड़ाई बहुत हो चुकी।

    मन तू, हो जा रे, अंतर्मुखी !..पूरी रचना ही जीवन दर्शन से ओतप्रोत,ये पंक्तियां मन में गहरे उतर गई।

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    1. रचना की सार्थक समीक्षा करने एवं मनोबल बढ़ाने हेतु सादर आभार आदरणीया जिज्ञासा जी।

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  9. प्यारी दी,
    प्रणाम
    आपकी इतनी भावपूर्ण और जीवन के प्रश्नों से व्यथित हृदय की सारगर्भित अभिव्यक्ति पर स्वतः निसृत कुछ पंक्तियाँ समर्पित है-

    जीव जगत का पथिक है तू
    मोह-माया से व्यथित है तू
    न भूल मिला मानव जीवन
    कर्मों की सूई से सी उधड़न
    यह जन्म-मरण,आना-जाना
    मन मलंग जपे मुक्ति गाना
    मन तू हो कर भी अंतर्मुखी
    कह न क्या है सचमुच सुखी?
    -----
    सप्रेम
    सादर

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    उत्तर
    1. प्रिय श्वेता, रचना की सार्थक समीक्षा करने एवं मनोबल बढ़ाने हेतु बहुत बहुत आभार एवं स्नेह ।
      आपकी पंक्तियाँ बहुत सुंदर हैं -
      जीव जगत का पथिक है तू
      मोह-माया से व्यथित है तू
      न भूल मिला मानव जीवन
      कर्मों की सूई से सी उधड़न...
      परंतु बाह्य जगत में न उलझते हुए, अंतर्मुखी होकर स्वयं को पहचानते हुए भी कर्म किए जा सकते हैं।

      हटाएं
  10. नदिया के जैसे, तू तृष्णा को हर ले
    बादल के जैसे, अहं रिक्त कर ले !
    फूलों के जैसे, तू महका दे परिसर
    वृक्षों के जैसे, स्थितप्रज्ञ बन ले !
    तू अब मौन हो जा, मनन में तू खो जा,
    प्रभु से लगा के लौ, हो जा सुखी !
    मन तू, हो जा रे, अंतर्मुखी !!!
    प्रभु से लौ लगाकर मौन होना और अंतर्मुखी होकर सुख पाना जीवन दर्शन से ओतप्रोत बहुत ही लाजवाब सृजन।
    वाह!!!

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    उत्तर
    1. आदरणीया सुधाजी, रचना की सार्थक समीक्षा करने एवं मनोबल बढ़ाने हेतु बहुत बहुत आभार

      हटाएं
  11. नदिया के जैसे, तू तृष्णा को हर ले

    बादल के जैसे, अहं रिक्त कर ले !

    फूलों के जैसे, तू महका दे परिसर

    वृक्षों के जैसे, स्थितप्रज्ञ बन ले !

    तू अब मौन हो जा, मनन में तू खो जा,

    ये सब लिखने पढ़ने में तो बहुत अच्छा लगता है लेकिन ये मन इतना बदमाश है कि सुनता किसी की नहीं ।
    अंतर्मुखी हो कर सुखी भी हो जाएगा , इसमें संदेह है ।
    निस्पर्ह होना भी कठिन है । और सबसे बड़ी बात कि जो संवेदनशील है वो तो बिल्कुल भी अंतर्मुखी हो कर सुखी नहीं हो पायेगा । बस व्यर्थ की बातों में मौन रहना ही ठीक ।
    सुंदर संदेश देती प्रेरक रचना ।

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    उत्तर
    1. जो संवेदनशील है वो तो बिल्कुल भी अंतर्मुखी हो कर सुखी नहीं हो पायेगा ।
      बात तो आपकी सही है दीदी। बस, कोशिश कर सकते हैं। मेरे ब्लॉग पर आपकी उपस्थिति एक संतोष का आभास कराती है। सादर आभार दी।

      हटाएं
  12. बहुत सुन्दर भाव ... वैराग्य के भाव ...
    मन अंतर्मुखी हो जाए तो स्वयं को ढूँढना आसान हो जाता है ... पर इंसान ज्यादा देर तक कहाँ रह पता है सबसे अलग ...

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    1. मन अंतर्मुखी हो जाए तो स्वयं को ढूँढना आसान हो जाता है...
      बस, यही कहने की एक छोटी सी कोशिश है रचना में। रचना को दिशा देने हेतु अत्यंत आभार आदरणीय दिगंबर सर।

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  13. बहुत सुंदर सृजन मीना जी अंतर्मुखी हो कर की स्वयं की खोज हो सकती है ।
    अंतर्मुखी मतलब आत्मा में लीन होना बुद्ध महावीर की तरह निर्वाण पथ पर चल पड़ना ।
    बहुत सुंदर।

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    उत्तर
    1. अंतर्मुखी मतलब आत्मा में लीन होना...
      जी दीदी, कई बार मन उकता जाता है इस छद्मी संसार से....रचना को दिशा देने हेतु अत्यंत आभार आदरणीया कुसुम कोठारीजी।

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  14. जग की ये गाड़ी, चलती रहेगी

    ना ये रुकेगी, ना ये रुकी !

    मन तू, हो जा रे, अंतर्मुखी !!

    सच जग किसी के लिए रुकता चलता रहता है, अपने को ही समझाना पड़ता खुद को, दूसरों पर किसी का जोर नहीं
    बहुत बढ़िया

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    1. अपने को ही समझाना पड़ता खुद को, दूसरों पर किसी का जोर नहीं....
      सही कहा आपने कविता जी। आप ब्लॉग पर आईं और रचना की समीक्षा की, बहुत बहुत आभार आपका।

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  15. उत्तर
    1. रचना की सराहना हेतु बहुत बहुत आभार मनोज जी।

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  16. बहुत ही भावपूर्ण रचना,आज पढ़ पाई ये ब्लॉग । वक्त कैसे उड़ा जा रहा समझ नहीं पा रही, आपकी मेरे ब्लॉग पर टिप्पणी आज पढ़ी तो यहां पहुंची, बहुत अच्छा लगा। फॉलो किया ।दूसरा ब्लॉग भी देखा बेहतरीन लेखन ।

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    उत्तर
    1. आदरणीया अर्चना दीदी,
      जब से मैंने ब्लॉग बनाया, तबसे यानि 2016 से पढ़ रही हूँ आपको। बहुत आस थी कि कभी आप मेरे ब्लॉग पर आएँ।
      पढ़ने का बहुत शौक होने के कारण जब मैं किसी ब्लॉग पर जाती हूँ तो बस खोज खोज कर पुरानी रचनाएँ उनकी पढ़ती चली जाती हूँ,कुछ इसी आदत से, कुछ समयाभाव से टिप्पणियाँ करने का काम रह जाता है। ऐसे में आप मेरी कमेंट को तवज्जो देकर यहाँ पहुँचीं, हृदय से धन्यवाद। आगे भी आती रहेंगी तो मुझे बहुत खुशी होगी।

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  17. कस्तूरी मृग कुंडल बसे ... अन्तरमुखी होने के उपरांत ही । अति सुन्दर सृजन के लिए हार्दिक बधाई ।

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    उत्तर
    1. आदरणीया अमृता जी, बहुत बहुत आभार रचना को पसंद करने के लिए। आपका लेखन भी मुझे बहुत पसंद है। कृपया आते रहें, मुझे बहुत खुशी होगी।

      हटाएं
  18. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (20-2-22) को 'तब गुलमोहर खिलता है'(चर्चा अंक-4346)पर भी होगी।आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
    --
    कामिनी सिन्हा

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