रविवार, 20 मई 2018

नदिया के दो तट

युग युग से चलते संग, मगर
अभिशाप विरह का सहते हैं,
मजबूर नियति के हाथों में
निःशब्द व्यथा को कहते हैं !
हम जीवन नदिया के दो तट !!!

जलती है कितने जन्मों से,
प्राणों की ज्योत प्रतीक्षा में,
फिर जन्मों का अनुबंध करूँ,
तुम आ जाओ तो बंद करूँ,
मैं अपने हृदय - द्वार के पट !!!

मिलने की आस लगाएँगे,
मरकर भी खुले रह जाएँगे,
प्रिय दर्शन को खुद प्यासे रह,
गगरी जल की छलकाएँगे,
मेरे दो नयनों के पनघट !!!

मचलें जब सागर की लहरें,
चंदा को बाँहों में भरने,
जब उफने उदधि किनारों पर,
तब एकाकी मँझधारों पर,
ढूँढ़े नैया अपना केवट !!!

कान्हा भी नहीं, राधा भी नहीं
ना मीठी ध्वनि मुरलिया की,
क्यूँ प्रीत की आज भी रीत वही,
क्यूँ राह तकें उस छलिया की,
यमुना का तट और वंशी - वट !!!
(चित्र गूगल से साभार)




3 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" सोमवार 22 जून 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. युग युग से चलते संग, मगर
    अभिशाप विरह का सहते हैं,
    मजबूर नियति के हाथों में
    निःशब्द व्यथा को कहते हैं !
    हम जीवन नदिया के दो तट !!!...बहुत ही सुंदर हृदय स्पर्शी अभिव्यक्ति आदरणीया मीना दीदी.

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  3. वाह!मीना जी ,बहुत सुंदर भावाभिव्यक्ति ।

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