बुधवार, 31 जनवरी 2018

प्रभातकाल

 प्रभातकाल -
ज्योतिपुंज वह भव्य भास्कर
रश्मिकोष को लुटा रहा,
काट तेज की तलवारों से
तमस,कुहासा हटा रहा !

अनगिन नक्षत्रों पर भारी
एक अकेला ही रविराज,
लज्जित हो निशिकांत छिप गया
बजने लगे विजय के साज !

पुलक - पुलककर भानुप्रिया ने
किए निछावर मुक्ताथाल,
आँचल में समेटकर मोती
दूर्वा - तृणदल हुए निहाल !

स्वर्णजटित पट पहन सजे
मेघों ने बढ़कर की जुहार,
विरुदावली सुनाते पंछी
पवन बजाती मधुर सितार !

पुष्प बिछाकर सतरंगी, तब
हरे मखमली कालीनों पर,
कनक मुकुट धारण कर तरुवर
स्वागत हेतु हुए तत्पर !

अब पहन राजसी वेष चला
साम्राज्य निरीक्षण को सत्वर,
कर्मोद्यत करने सृष्टि को
स्वयं कर्मरत हुआ दिवाकर !

रविवार, 28 जनवरी 2018

बावरी ख्वाहिश का क्या ?

बावरे मन की,
बावरी ख्वाहिश !
बावरी ख्वाहिश का क्या ?
पूरी ना होगी,
ना होनी थी जो,
पगली सी ख्वाहिश का क्या ?

कागज की कश्ती में
दरिया को कोई,
पार करे भी तो कैसे ?
ज़िंदा ख्वाबों को
दफनाए केैसे,
कॊई मरे भी तो कैसे ?

आजमाया दुनिया ने
आजमा लो तुम भी,
अब आजमाइश का क्या ?
बावरे मन की
बावरी ख्वाहिश !
बावरी ख्वाहिश का क्या ?

प्रेम गर पाप है
तो कुदरत है पापी,
पापी हुआ रब !
बूँदों को बाँधे थी
पलकों की डोरी,
खुलने लगी अब !

दिखती ना छुपती,
जलती ना बुझती,
अब ऐसी आतिश का क्या ?
बावरे मन की,
बावरी ख्वाहिश !
बावरी ख्वाहिश का क्या ?

शनिवार, 27 जनवरी 2018

तितली

ना उसके ओंठ हिलते थे,
ना कोई राग बहता था,
मगर रंगीन पंखों को,
वो जिस दम फड़फड़ाती थी,
कोई नगमा मचलता था
हवाएँ गुनगुनाती थीं !!!

बहारों का संदेशा ले,
वो जब उड़ती थी, थमती थी,
सरसराते थे रंग जीवंत होकर
फूल-फूल में, कली-कली में !
उतर आते थे शाखों पर,
फ़िजाओं में, हजारों रंग बिखरते थे !!!

कोई सैय्याद गुलशन में
लगाए घात बैठा था !!!
बड़ी नापाक नजरों से
लगाए ताक बैठा था !!!
वो अनजान सी बेखबर घूमती थी
फूलों से मिलती, कली चूमती थी !

लगी हाथ जालिम के, कसमसाई
वो नन्ही सी जान, नहीं छूट पाई !
सहमा सा गुलशन, सहमी सी बगिया,
खामोश सारे, फूल और कलियाँ !
तड़पकर वो अपना, दम तोड़ती है,
हत्यारी उंगलियों पर भी, रंग छोड़ती है !!!


शुक्रवार, 19 जनवरी 2018

वीणावादिनी


वीणावादिनी ! वरदहस्त तुम
मेरे सिर पर धर देना !
अपनी कृपा के सुमनों से माँ,
आँचल मेरा भर देना !

मैं नहीं योग्य, मैं नहीं शुद्ध,
ना निर्मल मन, ना मति प्रबुद्ध,
माँ अपनी दयावृष्टि करके
हर पातक मेरा हर लेना !
अपनी कृपा के सुमनों से माँ,

आँचल मेरा भर देना !
     
माँ, ज्ञानकोष है सागर सम
यह रिक्त कभी ना हो सकता,
जितना बाँटूँ, बढ़ता जाए
इतना ही मुझको वर देना !
अपनी कृपा के सुमनों से माँ,

आँचल मेरा भर देना !
     
तुमसे पाकर, तुमको अर्पण
करने में सकुचाता है मन,
सुन लेना बालक का क्रंदन,
बस यही अनुग्रह कर देना !
अपनी कृपा के सुमनों से माँ,

आँचल मेरा भर देना !
       
     

गुरुवार, 18 जनवरी 2018

एक बवाल ऐसा भी...

रात के ग्यारह बज रहे हैं। मैं हाथ में कापी पेन लिए बेडरूम से बालकनी, बालकनी से बेडरूम के चक्कर लगा रही हूँ। 'वे' मेरी इस 'नाइट वाक' से हैरान परेशान, हथेलियों पर ठुड्डी टिकाए कभी मुझे देखते हैं और कभी घड़ी को। आखिर ना रहा गया तो बोल उठे - 'ये क्या हो रहा है?'
मैं - एक कविता लिखनी है। विषय है - बवाल।
वे - ओह ! तो फिर ?
मैं - कुछ सूझ नहीं रहा...
वे - 'बवाल' विषय पर आप निश्चय ही बहुत बढ़िया लिख सकती हैं। फिर भी, आप चाहें तो ये नाचीज आपकी कुछ मदद कर सकता है । 
मैं - (शक्की नजरों से देखते हुए ) अच्छा ! कीजिए। 
वे - तो लिखिए.....
             "बिना किसी सवाल, 
          मैं झेलूँ रोज एक बवाल !
          आलू छोटे आ गए तो बवाल !
          भिंडी बड़ी आ गई तो बवाल !
          गीला तौलिया बिस्तर पर, छोटा बवाल !
          दफ्तर से फोन ना किया, बड़ा बवाल !.....
मैं - बस ! बस ! ये आप कविता बना रहे हैं या एक नए बवाल की भूमिका ?
वे - डियर, मैं तो बस आपकी मदद.....
मैं - रहने दें आपकी मदद । मैं लिख लूँगी कुछ ना कुछ । पता है, पिछली बार 'अलाव' विषय पर लिखकर भेजा था, तो मेरी रचना पाँचवें नंबर पर आई थी। 
वे - अच्छा ! पर मुझे लगता है कि विषय 'अलाव'के बजाय 'पुलाव' होता तो आप ही पहले नंबर पर होतीं!!!

( मैंने आँखें तरेरकर देखा। उन्होंने मासूम बच्चे की तरह कान पकड़ लिए, ....सॉरी !!! )

वे - एक और आयडिया आया है । आपने वो गाना सुना है ? 'एक सवाल मैं करूँ, एक सवाल तुम करो, हर सवाल का सवाल ही जवाब हो....'
मैं - हाँ । 
वे - बन गई बात ! आप यूँ लिखिए --
        "इक बवाल मैं करूँ
       इक बवाल तुम करो !
       हर बवाल का,
       बवाल ही जवाब हो !"

( मैंने अपना सिर पकड़ लिया । )

मैं - हे भगवान ! आपको तो बताना ही नहीं चाहिए था। आपको साहित्य और कविता की कोई कद्र ही नहीं है। ना जाने कैसे नीरस इंसान हैं आप.... अजी, बवाल एक गंभीर विषय है। एक से एक संवेदनशील रचनाएँ आ रही हैं इस विषय पर और आप.....
वे - ( रजाई में मुँह घुसाकर ) लो चुप हो गया। वरना फिर से शुरू हो जाएगा एक नया...... 
दोनों साथ - बवाल !!!!
           

शनिवार, 13 जनवरी 2018

अलाव

पेड़ों के टूटे पत्ते, कागज,
टूटी छितरी डालियाँ
कर इकट्ठा सुलगा दीं किसी ने !
सिमटे - ठिठुरते भिखमंगों,
अधनंगे फुटपाथियों की
सारी ठंड बटोरकर,
काँपता रहा अलाव !!!

पिता के झुकते कंधे,
माँ की उम्मीदभरी आँखें
कैसे करे वो सामना ?
आज भी ना मिली नौकरी !
तमाम डिग्रियाँ,आग में झोंककर
लगाया उसने जोरदार कहकहा,
सिसकता रहा अलाव !!!

अधभरे पेट से छल करते,
अलाव के चारों ओर
थिरकते पैर, बजती खंजड़ी,
चूल्हे पर खदबदाती खिचड़ी !
रैनबसेरा करते खानाबदोश
चल देंगे सुबह नए ठिकाने,
बंजारा हो गया अलाव !!!

तल्खियाँ

ज़िंदगी की तल्खियाँ, कुछ यूँ छुपाईं दोस्तों
दर्द की स्याही से लिख, गीतों में गाईं दोस्तों !

डूबना था कागजों की कश्तियों को एक दिन
वक्त से पहले किसी ने, क्यों डुबाईं दोस्तों !

कह गया कुछ राज की बातें, मेरा नादान दिल
अब लगे, उस अजनबी को क्यों सुनाई दोस्तों !

कुछ तड़प,कुछ बेखयाली और कुछ गफलत मेरी, 
उफ ! मोहब्बत नाम की, आफत बुलाई दोस्तों !

अपनी साँसों का गला, घोंटा किए हर एक पल
दिल लगाने की सज़ा, इस तरहा पाई दोस्तों !

यूँ लबों को मुस्कुराने की, ये आदत डाल दी
बहती आँखें, क्यों किसी को दें दिखाई दोस्तों !

बुधवार, 10 जनवरी 2018

चिट्ठियाँ

चिट्ठियाँ,
होती थीं दस्तावेज प्यार का,
तकरार का, लगाव का,
हर उतार - चढ़ाव का !
वे कागज के टुकड़े,
कर देते कभी दिलों के टुकड़े,
तो कभी टूटे दिलों को,
जोड़ भी देती थीं चिट्ठियाँ !

अमानत की तरह खास
सँभालकर रखी जाती,
दिल में भी, घर में भी ।
बाबूजी की वह संदूक,
माँ का लाल रेशमी थैला,
सहेजी जाती थी गहनों सी,
उनमें कुछ खास चिट्ठियाँ !

किसी के स्वर्गवास का
दुःखद संदेश लाते,
वे कोने कटे पोस्टकार्ड,
ब्याह सगाई का निमंत्रण देते,
हल्दी रोली के छींटे पड़े,
वे पीले लाल लिफाफे,
चाचाची के अंतर्देशीय,
मौसी की बैरंग चिट्ठी,
राखी की नाजुक डोर सी,
कलेजे की कोर सी चिट्ठियाँ !

वाट्स एप में सिमट गए,
आज वे रिश्ते नाते
वे खूबसूरत ग्रीटिंग कार्ड,
अब नहीं आते !!!!
बचे खुचे कुछ खत 
रखे हैं सँभालकर कि
बता सकूँ आने वाली पीढ़ियों को - 
"देखो, ऐसी होती थी चिट्ठियाँ !"
कभी आती थी चिट्ठियाँ !!!!


रविवार, 7 जनवरी 2018

सृजन - गीत

सृजन में संलग्न होकर
निर्मिती के गीत गा लो,
प्रेम-पथ पर है घना तम,
दीप निष्ठा का जला लो !
          सृजन में संलग्न होकर....

वेदना,पीड़ा,व्यथा, को
ईश का उपहार समझो,
तुम बनो शिव,आज परहित
इस हलाहल को पचा लो !
         सृजन में संलग्न होकर.....

नीर को, अब क्षीर से,
करना विलग तुम सीख भी लो,
उर-उदधि को कर विलोड़ित,
नेह के मोती निकालो !
          सृजन में संलग्न होकर.....

गहन गहरी कंदरा सा,
हृदय तल पाया है तुमने !
खोज लोगे रत्न अनगिन
मन जरा अपना खंगालो !
         सृजन में संलग्न होकर....
          

बुधवार, 3 जनवरी 2018

कविता वह मकरंद है.....

कविता वह मकरंद है,
जिससे तितलियाँ अपना
पेट भरती हैं !

कविता निर्मल निर्झर है,
नहाती हैं जिसमें
सपनों की परियाँ !

कविता वह चंदनवृक्ष है,
नहीं सताता भय जिसे
विषधरों का !

कविता जीवनकथा है,
कुछ खुशी, कुछ व्यथा है
कही - अनकही !

कविता से शब्दों के पंख ले,
उम्मीदों के आतुर पंछी
नापते हैं आसमां !

कविता नीला वितान है,
'चिड़िया' की उड़ान है
चहक भरी !

कविता शीतल ज्योत्सना है,
पाते हैं विश्राम जिसमें
सुलगते मन !

कविता स्वयं अपना परिचय है,
शब्दों पर भावनाओं की
विजय है !!!

........सभी ब्लॉगर साथियों को नववर्ष 2018 की हार्दिक शुभकामनाएँ......