प्रभातकाल -
ज्योतिपुंज वह भव्य भास्कररश्मिकोष को लुटा रहा,
काट तेज की तलवारों से
तमस,कुहासा हटा रहा !
अनगिन नक्षत्रों पर भारी
एक अकेला ही रविराज,
लज्जित हो निशिकांत छिप गया
बजने लगे विजय के साज !
पुलक - पुलककर भानुप्रिया ने
किए निछावर मुक्ताथाल,
आँचल में समेटकर मोती
दूर्वा - तृणदल हुए निहाल !
स्वर्णजटित पट पहन सजे
मेघों ने बढ़कर की जुहार,
विरुदावली सुनाते पंछी
पवन बजाती मधुर सितार !
पुष्प बिछाकर सतरंगी, तब
हरे मखमली कालीनों पर,
कनक मुकुट धारण कर तरुवर
स्वागत हेतु हुए तत्पर !
अब पहन राजसी वेष चला
साम्राज्य निरीक्षण को सत्वर,
कर्मोद्यत करने सृष्टि को
स्वयं कर्मरत हुआ दिवाकर !