शुक्रवार, 3 नवंबर 2017

बोल, क्या नहीं तेरे पास ?

बोल, क्या नहीं तेरे पास ?

यह मनु-तन पाया
हर अंग बहुमूल्य,
सद्गुणों से बन जाए
तू देवों के तुल्य !
वाणी मणिदीप है,
तो बुद्धि है प्रकाश !!!

बोल क्या नहीं तेरे पास ?

देख उन सजीवों को
तू जिनसे बेहतर !
घुट घुटकर जीना है,
मरने से बदतर !
खींचकर निकाल दे,
मन की हर फाँस !

बोल, क्या नहीं तेरे पास ?

मानव का जन्म मिला
सबसे अनमोल,
हीरों को कंकड़ों संग
तराजू ना तोल !
सोच जरा, समझ जरा
क्यों है निराश ?

बोल, क्या नहीं तेरे पास ?

उठ सत्वर ! कर्म कर,
आलस को त्याग कर,
तपता, जलता है ज्यों
जगहित दिनकर !
कुछ स्व का, कुछ पर का,
किए जा विकास !

बोल, क्या नहीं तेरे पास ?





6 टिप्‍पणियां:

  1. सार्थक शब्द समन्वय संग सुंदर संदेश दिया है आपने.
    बधाई.

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  2. बहुत सुन्दर मीना जी !
    निराशा, अकर्मण्यता और रुदन के वातावरण में आशा, उल्लास और कर्मठता का सन्देश!

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  3. कुछ स्व का, कुछ पर का,
    किए जा विकास !
    बोल, क्या नहीं तेरे पास ?
    मरे हुए मन में उत्साह जगाता सार्थक रचना ,सादर नमस्कार मीना जी

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  4. बहुत सुन्दर मीना जी, कवि शैलेन्द्र की पंक्तियाँ याद आ गईं -
    तू जिंदा है तो ज़िंदगी की जीत पर यकीन कर,
    अगर कहीं है स्वर्ग तो, उतार ला ज़मीन पर.

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  5. बहुत सुंदर प्रेरक सृजन प्रिय मीना जी | कहते हैं अकर्मण्यता से राजे , रजवाड़े और अनगिन सभ्यतायेन मिट गई| स्वस्थ तन - मन के बावजूद जो व्यक्ति कर्म ना करे उसका हीरा जन्म अकारथ चला जाता है | प्रेरणादायक संदर्श संजोये रचना के लिए हार्दिक शुभकामनायें | सस्नेह --

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  6. उठ सत्वर ! कर्म कर,
    आलस को त्याग कर,
    तपता, जलता है ज्यों
    जगहित दिनकर !
    कुछ स्व का, कुछ पर का,
    किए जा विकास !
    बोल, क्या नहीं तेरे पास ?
    निशब्द हूँ एक बार फिर से !

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