सोमवार, 13 नवंबर 2017

एकाकी मुझको रहने दो

एकाकी मुझको रहने दो.
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पलकों के अब तोड़ किनारे,
पीड़ा की सरिता बहने दो,
विचलित मन है, घायल अंतर,
एकाकी मुझको रहने दो।।

शांत दिखे ऊपर से सागर,
गहराई में कितनी हलचल !
मधुर हास्य के पर्दे में है,
मेरा हृदय व्यथा से व्याकुल
मौन मर्म को छू लेता है,
कुछ ना कहकर सब कहने दो !
एकाकी मुझको रहने दो।।

कोमल कुसुमों में,कलियों में,
चुभते काँटे हाय मिले,
चंद्र नहीं वह अंगारा था,
जिसको छूकर हाथ जले,
सह-अनुभूति सही ना जाए
अपना दर्द स्वयं सहने दो !
एकाकी मुझको रहने दो।।

यादों के झरने की कलकल
करती है मन को विचलित !
क्या नियति ने लिख रखा है,
जीवन क्यूँ यह अभिशापित ?
गाए थे हमने जो मिलकर 
उन गीतों को अब रोने दो !
एकाकी मुझको रहने दो ।।

पलकों के अब तोड़ किनारे,
पीड़ा की सरिता बहने दो, !
विचलित मन है, घायल अंतर,
एकाकी मुझको रहने दो।।

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