गुरुवार, 23 नवंबर 2017

प्रेम

व्यंग्य के तीरों से भरे
तरकश से निकला
फिर एक नया तीर
और उतर गया,सीधा
उसके कलेजे में !

कलेजे में तो सिर्फ
एक नया छिद्र हुआ,
वहाँ कुछ था ही कहाँ
जो बहता, रीतता !

आँखें तो झरोखा रही थीं,
दिल की मासूमियत और
इरादों की पाकीज़गी का,
नहीं सहा गया दर्द 
दो आँखों से, जमाने भर का !

आँखों की सहनशीलता
जवाब दे गई
लहू की धारा आँखों से
बह निकली !

अपने-पराए, सारे घबराए
पास ना कोई आए
लहू का लाल रंग
डरा देता है सबको !

कुछ समय बाद देखा
जमीं पर लाल अक्षरों में
उसी लहू के रंग से
उसने लिखा था एक शब्द
ढ़ाई आखर का --
- प्रेम -



1 टिप्पणी:

  1. यही है ढाई आखर प्रेम का !जीवन में यही है दर्द,जिसका दूसरा नाम प्रेम है।एक मर्मांतक रचना 🙏

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