कितने ही युग बीत गए
समय के प्याले भरे,
और रीत गए....
किन्तु नहीं बदला
आज भी रिवाज
स्त्री की अग्निपरीक्षा का !
पुरुष कोई राम नहीं,
हक़ फिर भी है उसे
अग्निपरीक्षा लेने का
स्त्री कोई सीता नहीं,
धैर्य फिर भी है उसमें
अग्निपरीक्षा देने का !
वह परीक्षा नहीं थी
सीता के सतीत्व की,
वह था प्रमाण केवल
राम के प्रति प्रेम का...
समाना था धरा में ही
क्या पहले, क्या बाद में ?
अब मेरी बारी है
सह लूँगी, कहूँगी नहीं...
विश्वास है, खरी उतरूँगी
हर परीक्षा में !
धरा में समाने से
रोक तो पाओगे न ?
समय के प्याले भरे,
और रीत गए....
किन्तु नहीं बदला
आज भी रिवाज
स्त्री की अग्निपरीक्षा का !
पुरुष कोई राम नहीं,
हक़ फिर भी है उसे
अग्निपरीक्षा लेने का
स्त्री कोई सीता नहीं,
धैर्य फिर भी है उसमें
अग्निपरीक्षा देने का !
वह परीक्षा नहीं थी
सीता के सतीत्व की,
वह था प्रमाण केवल
राम के प्रति प्रेम का...
समाना था धरा में ही
क्या पहले, क्या बाद में ?
अब मेरी बारी है
सह लूँगी, कहूँगी नहीं...
विश्वास है, खरी उतरूँगी
हर परीक्षा में !
धरा में समाने से
रोक तो पाओगे न ?
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