पाषाण
सुना है कभी बोलते,
पाषाणों को ?
देखा है कभी रोते ,
पाषाणों को ?
कठोरता का अभिशाप,
झेलते देखा है ?
बदलते मौसमों से,
जूझते देखा है ?
पाषाणों से फूटते फव्वारें
देखे हैं कभी ?
कौन कहता है
पाषाणों मे दिल नहीं होते ?
रोते हैं पाषाण
जब बन जाते हैं वे,
किसी के
खून बहाने का जरिया...
चीखते हैं पाषाण
जब टूटते - बिखरते हैं,
मानव के क्रूर हाथों,
अथवा गढ़े जाते हैं
मूक मूर्तियों में.
कौन करता है परवाह
उनकी चाहत की?
कोई पूछे तो सही
उनको क्या बनना है ?
खामोश रहते हैं पाषाण,
होते हैं जब जिंदा दफन,
नींव का पत्थर बनकर.
नहीं माँगते हक अपना,
इठलाती-इतराती इमारतों से.
घोंट देते हैं गला,
अपनी इच्छाओं का
बलिदान हो जाते हैं
पराए सौंदर्य को
सँभालने - सँवारने में.
कौन कहता है
पाषाणों मे दिल नहीं होते ?
मुस्कुरा देते हैं पाषाण
जब कहती है कोई प्रेयसी,
अपने प्रियतम को
----”पत्थर दिल”’
और तब भी जब
कोई इंसान पा जाता है
पत्थर की उपाधि
बह जाते हैं पाषाण
नदियों के प्रवाह संग
घिसते - छीजते हैं बरसों,
तब जाकर पाते हैं
रूप शालिग्राम का
और कहलाते हैं --
'स्वयंभू' ....
कौन कहता है
पाषाणों मे दिल नहीं होते ?
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