रविवार, 18 फ़रवरी 2018

मैं दीपशिखा - सी जलती हूँ !

जाने किस ईश्वर की मूरत
मैं मन ही मन में गढ़ती हूँ,
पूजा करने उस मूरत की
मैं दीपाशिखा-सी जलती हूँ !

सपनों की भूलभुलैया में
मैं करती हूँ पीछा जिसका,
ना नाम खबर, ना देश पता
ना चेहरा ही देखा उसका !
मैं मंत्रमुग्ध, सम्मोहित सी,
क्यों उसके पीछे चलती हूँ ?
मैं दीपशिखा-सी जलती हूँ !

इक देह मिली हर आत्मा को,
जब से सृष्टि में जीव बने !
कुछ ऐसे एकाकार हुए,
जन्मों - जन्मों के मीत बने !
मैं किसकी बाट जोहती - सी,
कातर संध्या बन ढलती हूँ ?
मैं दीपशिखा-सी जलती हूँ !

मैं मीरा बनकर भी तड़पी,
और राधा बनकर भी बिछुड़ी !
युग - युग से यही नियति मेरी,
मैं पुष्प - पंखुड़ी सी बिखरी !
कस्तूरी मृग सी भटक - भटक,
क्या स्वयं, स्वयं को छलती हूँ ?
मैं दीपशिखा-सी जलती हूँ !

1 टिप्पणी:

  1. मैं मीरा बनकर भी तड़पी,
    और राधा बनकर भी बिछुड़ी !
    युग - युग से यही नियति मेरी,
    मैं पुष्प - पंखुड़ी सी बिखरी !
    कस्तूरी मृग सी भटक - भटक,
    क्या स्वयं, स्वयं को छलती हूँ ?
    मैं दीपशिखा-सी जलती हूँ !
    कुआ बात है प्रिय मीना | कूद से संवाद और खुद से उलझकर खुद को समझाना ~ नारी मन की व्यथा यही है | भावपूर्ण रचना जो मन में कसक का एहसास कराती है |

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