शुक्रवार, 16 फ़रवरी 2018

मन तुझे ढ़ूँढ़ने फिर चला

खोजा मैंने मंदिर - मंदिर,
कान्हा ! तू ना कहीं मिला !
तेरी मुरली से खिंचता हुआ सा
मन तुझे ढूँढ़ने फिर चला !!!

खुशबू तेरी ही हर इक सुमन में,
तेरे रंगों की अद्भुत छटा !
झील के नीले जल में झलकता,
नीलमणि सा वो मुखड़ा तेरा !
रात्रि में चाँद का रूप धरता,
भोर में सूर्य बनकर मिला !
तेरी मुरली से खिंचता हुआ सा,
मन तुझे ढूँढ़ने फिर चला !!!

पीले पत्ते, जो पतझड़ में टूटे
झूमकर गिरते हैं, वे धरा पर
नृत्य करते हैं वे, मिटते-मिटते
माटी को चूमते मुस्कुराकर !
नाश के बाद, होगा सृजन फिर
है युगों से यही क्रम चला !
तेरी मुरली से खिंचता हुआ सा,
मन तुझे ढूँढ़ने फिर चला !!!

श्यामवर्णी निशा ने तिमिर की
काली कमली धरा को ओढ़ाई,
चाँद का गोरा मुखड़ा छिपाने,
एक बदली कहीं से चली आई !
तेरा अहसास कण-कण ने पाया
कैसा जादू अजब ये चला !
तेरी मुरली से खिंचता हुआ सा
मन तुझे ढूँढ़ने फिर चला !!!
(चित्र गूगल से साभार)











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