शनिवार, 23 सितंबर 2017

बस, यूँ ही....

नौकरी, घर, रिश्तों का ट्रैफिक लगा, 
ज़िंदगी की ट्रेन छूटी, बस यूँ ही !!!

है दिवाली पास, जैसे ही सुना,
चरमराई खाट टूटी, बस यूँ ही !!!

डगमगाया फिर बजट इस माह का,
हँस पड़ी फिर आस झूठी, बस यूँ ही !!!

साँझ की गोरी हथेली पर बनी,
सुर्ख रंग की बेलबूटी, बस यूँ ही !!!

झोंपड़ी में चाँदनी रिसती रही,
चाँद कुढ़ता बाँध मुट्ठी, बस यूँ ही !!!

एक दीपक रात भर जलता रहा,
तमस की तकदीर फूटी, बस यूँ ही !!!

राह तक पापा की, बिटिया सो गई,
रोई-रोई, रूठी-रूठी, बस यूँ ही !!!




3 टिप्‍पणियां:

  1. बस यूँ ही '' की सी बातें आप के शब्दों का स्पर्श पा खास हो गयी प्रिय मीना बहन | सुंदर भावपूर्ण रचना | ----- सस्नेह ------

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  2. झोंपड़ी में चाँदनी रिसती रही,
    चाँद कुढ़ता बाँध मुट्ठी, बस यूँ ही !!!

    बहुत सुंदर मीना जी

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  3. वैसे तो अभी दशहरा नजदीक है (आपके तरफ विशेष नहीं होता ) .. फिर भी .. दिवाली ही सही ...
    "है दिवाली पास, जैसे ही सुना,
    चरमराई खाट टूटी, बस यूँ ही !!!"
    दो पंक्ति मैं जोड़ने की गुस्ताख़ी कर रहा मीना जी ...
    "झोपडी के भीतर अपनी थे हम राजा
    विज्ञापनों ने किया गरीब, बस यूँ ही !"
    अच्छा प्रयास ... आम आदमी का कसमकस ...

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