शुक्रवार, 15 सितंबर 2017

अबूझे प्रश्न


मैंने नजर उठाकर देखा,
जब भी अपने चारों ओर...
स्वार्थ, ईर्ष्या औ' लालच का,
पाया कहीं ओर ना छोर ।

सहते रहते क्यों हर पीड़ा 

मूक, मौन, निष्पाप ह्रदय ?
किन पापों की सजा भुगतते,
निष्कपटी, निर्दोष, सदय ?

क्यों लगता है मुझको ऐसा,

सारी खुशियाँ हैं झूठी,
खिलने के पहले ही आखिर,
क्यों इतनी कलियाँ टूटीं ?

क्यों गुलाब को ही मिलता है,

हरदम काँटों का उपहार ?
क्यों रहता है कमल हमेशा,
कीचड़ में खिलने, तैयार ?

क्यों लगते हैं नकली, सारे

रिश्ते नातों के बंधन ?
इस जीवन - सागर के तट पर,
क्यों एकाकी मेरा मन ?

मन चंचल, उत्सुक बच्चे सा,
तंग करे हर पल मुझको,
निशि दिन करता है प्रश्न नए,
बोलो क्या उत्तर दूँ उसको ?

1 टिप्पणी:

  1. आदरणीय मीना जी ---- संवेदनशील मन के स्वभाविक प्रश्नों को आपने बहुत ही सरल शब्दों में ढालकर रचना का रूप दिया है | सचमुच ये प्रश्न अक्सर अनुत्तरित ही होते हैं | सस्नेह शुभकामना आपको ------

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