मैंने नजर उठाकर देखा,
जब भी अपने चारों ओर...
स्वार्थ, ईर्ष्या औ' लालच का,
पाया कहीं ओर ना छोर ।
सहते रहते क्यों हर पीड़ा
मूक, मौन, निष्पाप ह्रदय ?
किन पापों की सजा भुगतते,
निष्कपटी, निर्दोष, सदय ?
क्यों लगता है मुझको ऐसा,
सारी खुशियाँ हैं झूठी,
खिलने के पहले ही आखिर,
क्यों इतनी कलियाँ टूटीं ?
क्यों गुलाब को ही मिलता है,
हरदम काँटों का उपहार ?
क्यों रहता है कमल हमेशा,
कीचड़ में खिलने, तैयार ?
क्यों लगते हैं नकली, सारे
रिश्ते नातों के बंधन ?
इस जीवन - सागर के तट पर,
क्यों एकाकी मेरा मन ?
मन चंचल, उत्सुक बच्चे सा,
तंग करे हर पल मुझको,
निशि दिन करता है प्रश्न नए,
बोलो क्या उत्तर दूँ उसको ?
आदरणीय मीना जी ---- संवेदनशील मन के स्वभाविक प्रश्नों को आपने बहुत ही सरल शब्दों में ढालकर रचना का रूप दिया है | सचमुच ये प्रश्न अक्सर अनुत्तरित ही होते हैं | सस्नेह शुभकामना आपको ------
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