शनिवार, 19 अगस्त 2017

कैसे करूँ नव सृजन ?

आर्द्र नयन, शुष्क मन !
कैसे करूँ मैं नव सृजन ?

पूर्णता में रिक्तता,
अलिप्तता में लिप्तता,
विस्मृति में है स्मृति
जागृति में है शयन !
            कैसे करूँ मैं नव सृजन ?

जय में पराजय लगे,
राग में विराग है
है मूक मौन वक्तृता
हास्य में छुपा रुदन !
           कैसे करूँ मैं नव सृजन ?

विकास में विनाश है,
तृप्ति में भी प्यास है
वह मार्ग कौन सा कहाँ?
जिसका करूँ मैं अनुगमन !
           कैसे करूँ मैं नव सृजन ?

1 टिप्पणी:

  1. प्रतिकूल परिस्थिति में बड़ी से बड़ी बाधा का सामना करते हुए भी नव-सृजन संभव है. बस, हारिए न हिम्मत, बिसारिए न हरि-नाम.

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