सोमवार, 28 अगस्त 2017

लौट आओ !

सूरज ढलने लगा,
रात ने स्याह ओढ़नी से
आसमां को ढ़क दिया
तब तुम आए !
मेरे हाथों में थमा दी
एक भारी भरकम पोटली,
पोटली में सितारे भरे थे !!!

पर मैंने तो जुगनू माँगे थे !
सितारों को सँभालना
मेरे बस की बात नहीं थी,
जुगनुओं को पकड़ पाना
तुम्हारे बस का नहीं था !!!

सितारों की रोशनी
मेरी आँखें ना सह सकीं !
जुगनुओं को ढूँढने का
जंगलीपन तुम्हे ना भाया !
कशमकश में फिसली
मेरे हाथों से,
रात भी, पोटली भी !!!

खुल गई भरम की गाँठ,
रात चुन गई, बिखरे सितारे !
जुगनू भी कहीं खो गए,
तुम भी लौट गए !
और मैं खोजती रह गई
तुम्हें भी, जुगनुओं को भी !!!

आसमां की आँखें लाल हैं
रोया होगा शायद,
या जागा होगा रात भर !
मेरे हाथों ने कँटीले पौधों से
जुगनू चुन लिए हैं,
लहूलुहान हो गए तो क्या ?

अब लौट आओ,
देखो ना !
मेरे लहूलुहान हाथों पर
मेंहदी का रंग है,
और मेहनत का भी !!!
लौट आओ !!!





5 टिप्‍पणियां:

  1. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा रविवार(२३-०२-२०२०) को शब्द-सृजन-९'मेहंदी' (चर्चा अंक-३६२०) पर भी होगी।
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    ….
    अनीता सैनी

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  2. अब लौट आओ,
    देखो ना !
    मेरे लहूलुहान हाथों पर
    मेंहदी का रंग है,
    और मेहनत का भी !!!
    लौट आओ

    बेहद हृदयस्पर्शी सृजन मीना ,एक एक शब्द दर्द में डूबा हुआ ,लाज़बाब ,सादर नमन

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