चिड़िया चली शहर से दूर,
शोर उसे था नामंजूर,वहाँ पेड़ बचे ना हरियाली,
ना है दाना ना पानी !!!!
भटकी इधर-उधर बेचारी
सुन लो उसकी करूण कहानी !
भूख-प्यास से हुई अधीर,
चिड़िया गई नदी के तीर,
मैला, दूषित पाया नीर,
"हाय ! मेरी फूटी तकदीर !!!
आ गए प्राण कंठ में मेरे"
रोकर बोली चिड़िया रानी !
भटकी इधर-उधर बेचारी
सुन लो उसकी करूण कहानी !
चिड़िया पहुँची इक जंगल में,
सोचा रहूँ यहाँ मंगल में,
टूटी यह आशा भी पल में,
देखे आते मानव दल में !!!
उनके हाथ कुल्हाड़ी, आरी,
उनकी नीयत थी शैतानी !
भटकी इधर-उधर बेचारी
सुन लो उसकी करूण कहानी !
नहीं सुरक्षित वन-उपवन,
देखूँ अब पर्वत प्रांगण,
चिड़िया पहुँची पर्वत पर,
वहाँ चल रहे बुलडोजर !!!
घूम रहे थे नर - नारी,
करते अपनी मनमानी !
भटकी इधर-उधर बेचारी
सुन लो उसकी करूण कहानी !
चिड़िया गई गाँव - देहात,
वहाँ भी बिगड़े थे हालात,
बढ़ रहे जुर्म और अपराध,
कहीं थे धर्म, कहीं थी जात !!!
नहीं श्रम का कोई सम्मान,
कर्ज में डूबे श्रमिक, किसान,
बँट गए खेत, बँटे खलिहान,
सभी के अलग अलग भगवान !!!
कहाँ जाए अब नन्ही जान,
खाक दर - दर की उसने छानी !
भटकी इधर-उधर बेचारी
सुन लो उसकी करूण कहानी !
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
२ नवंबर २०१९ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।,
वाहः बेहतरीन
जवाब देंहटाएंवाह!!मीना जी ,लाजवाब!!
जवाब देंहटाएंबेहतरीन रचना मीना जी
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर और यथार्थ सृजन ,चिड़ियों की दशा तो दयनीय हो गई हैं जो चिंताजनक भी हैं ,सादर नमस्कार
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रिय मीना !चिड़िया की भटकन भी अब स्थायी हो गयी है | गाँव जैसे गाँव नहीं रहे तो नदी , जंगल और खेत- खलिहान सब चिड़िया के योग्य ना रहे |उसके भीतर भी बौद्धिकता मौजूद है तभी तो वह सबकी आँखों का तारा है | पर मनुष्य के स्वार्थ और भौतिकवादी लोलुपता के चलते उसकी दयनीयता आज चरम पर है जिसको बहुत ही सार्थकता से शब्दांकित किया है आपने | इस जीवंत शब्द चित्र के लियी ढेरों शुभकामनाएं|
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना शुक्रवार २२ अप्रैल २०२२ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
चिड़िया के माध्यम से पेड़ों की कटाई पर प्रहार किया है ।।सुंदर रचना ।
जवाब देंहटाएंचिड़िया गई गाँव - देहात,
जवाब देंहटाएंवहाँ भी बिगड़े थे हालात,
बढ़ रहे जुर्म और अपराध,
कहीं थे धर्म, कहीं थी जात !!!
नहीं श्रम का कोई सम्मान,
कर्ज में डूबे श्रमिक, किसान,
बँट गए खेत, बँटे खलिहान,
सभी के अलग अलग भगवान !!!
बहुत ही भावपूर्ण अभिव्यक्ति प्रिय मीना।आज फिर से पढ़कर अच्छा लगा।चिड़िया को दरबदर भटकाने वाला इन्सान खुद भी कहाँ चैन से जी पा रहा है।उसकी पलायनवादी प्रकृति ने उसे तिनका बना यहाँ वहाँ भटका रखा है।
अरे वाह ! कितनी सुंदर, कितनी प्यारी रचना है!
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