शनिवार, 23 दिसंबर 2017

लम्हे

खनकती चूड़ियों वाली सुबहें
छ्नकती झाँझरों वाली रातें,
नर्म नाजुक से महकते लम्हे,
बंद हैं वक्त के पिटारे में !

प्यार की धड़कनों को सुनते हुए
ख्वाब आँखों में नए बुनते हुए,
शबनमी शब के बहकते लम्हे
बंद हैं वक्त के पिटारे में !

पंखुरी खोलते फूलों जैसे,
अनकहे, अनसुने बोलों जैसे,
रेत की तरहा फिसलते लम्हे,
बंद हैं वक्त के पिटारे में !

रेशमी सलवटों को छूते हुए,
जैसे खुशबू की फसल बोते हुए,
मिलती नज़रों से सिहरते लम्हे,
बंद हैं वक्त के पिटारे में !

कहने सुनने हैं फसाने कितने
कैद में गुजरे, जमाने कितने !
बाहर आने को तरसते लम्हे
बंद हैं वक्त के पिटारे में !

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