शुक्रवार, 13 अक्तूबर 2017

मेरे स्नेही सागर !

मेरे स्नेही सागर !
दुनिया तुम्हें खंगालती होगी
रत्नों की चाह में,
गोताखोर लगाते होंगे डुबकियाँ
मोतियों की आस में !

किंतु मैं तो दौड़ी आती हूँ
सिर्फ और सिर्फ तुम्हारे लिए !
मुझे तुम्हारे मुक्ता मणियों की
ना आस है ना चाव !

उमड़-उमड़ कर, पार करती
पर्वतों, बीहडों, जंगलों को
राह में मिले रोड़े, पत्थर, काँटे
और कितने ही गंदे नाले !
घायल अंतर, प्रदूषित तन की
भेंट लिए चली आई हूँ !

जानती हूँ मैं !
एक तुम ही हो, जिसमें शक्ति है
मेरा आवेग सँभालने की,
मुझे मुक्त करने की, इस भार से
जो ढोती आई हूँ मैं
युगों - युगों से !

कौन कहता है कि बंद हो गई है
मैला ढोने की पंरपरा !
मैं तो अब भी ढो रही हूँ !!!
यदि लोगों का बस चलता,
तो मुझे भी अछूत कह देते !

हजारों मील दूर से,
सम्मोहित सी, मार्गक्रमण करती
मानव के हर अत्याचार को झेलती,
तुममें समा जाने को अधीर,
मैं बहती रही ! बहती रही !

सुनो प्रियतम,
तुमसे मिलकर बाँध टूटा,
बहे झरझर अश्रू के निर्झर !
शायद इसीलिए खारे हुए तुम !
खारेपन की, आँसुओं की
सौगात भी सहेज ली ?

मेरे स्नेही सागर !
मैं तो दौड़ी आती हूँ
सिर्फ और सिर्फ तुम्हारे लिए !











2 टिप्‍पणियां:

  1. "सुनो प्रियतम,
    तुमसे मिलकर बाँध टूटा,
    बहे झरझर अश्रू के निर्झर !
    शायद इसीलिए खारे हुए तुम !
    खारेपन की, आँसुओं की
    सौगात भी सहेज ली ?

    मेरे स्नेही सागर !
    मैं तो दौड़ी आती हूँ
    सिर्फ और सिर्फ तुम्हारे लिए !"
    लाजवाब अभिव्यक्ति है व्यथा की, नदी की - ' मेरे स्नेही सागर में'!!

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