बुधवार, 15 मार्च 2017

दोषी हो तुम !

दोषी हो तुम !
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स्वार्थ के इस दौर में जब,
अविश्वास और संदेह के भाव,
घुट्टी में पिलाए जा रहे हैं....
तुम संप्रेषित कर रहे हो,
निष्पाप भावनाएँ, कोमल संवेदनाएँ...
छूत का ये रोग क्यों फैला रहे हो ?
दोषी हो तुम !

क्यों नहीं तुम देख पाते,
शुभ्रता के आवरण में कालिमा ?
क्यों नहीं पहचान पाते,
कौन है अपना - पराया
बीज कुछ अनमोल रिश्तों के,
अभी भी बो रहे हो ?
दोषी हो तुम !

चाँद को क्यों आज भी तुम,
देखते हो 'उस' नजर से
अरे पागल, कलंकित हो चुका वह !
छू लिया इंसान ने कबका उसे !
और तुम उसको अभी तक,
प्यार अपना कह रहे हो ?
दोषी हो तुम !

4 टिप्‍पणियां:

  1. सार्थक तत्वों को समेटे बहुत सार्थक रचना मीना जी आपके नये ब्लॉग का स्वागत है।
    बहुत बहुत सुंदर।

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  2. स्वार्थ के इस दौर में जब,
    अविश्वास और संदेह के भाव,
    घुट्टी में पिलाए जा रहे हैं....
    तुम संप्रेषित कर रहे हो,
    निष्पाप भावनाएँ, कोमल संवेदनाएँ...
    छूत का ये रोग क्यों फैला रहे हो ?
    दोषी हो तुम !.... वाह बहुत सुंदर रचना मीना जी

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