शनिवार, 15 मार्च 2025

हफ्ते भर का चिट्ठा

जैसे कागज की कश्ती
बहती बहते पानी में
वैसे ही दिन बीत रहे हैं
बिन तेरे ओ साथी !

कहता है मन अभी मिलेगा
उसका कोई संदेशा
ना आने से मन बुझ जाता
बिना तेल ज्यों बाती !

बहलाते हैं व्यस्त बनाकर
हम बस अपने दिल को
दिन तो फिर भी कट जाता है
रात ना कटने पाती !

नींद चिरैया बनकर उड़
जाती है पास तुम्हारे
कितनी गहरी निंदिया में 
वह जाकर तुम्हें सुलाती !

और यहाँ नयनों को मूँदे
करते हैं हम नाटक
ना जाने कब नींद लौटकर
सपने हमें दिखाती !

हम सारे संदेश तुम्हारे
सपनों में पढ़ते हैं
सुबह लौटकर आओगे तुम
फिर उम्मीद जगाती !

बहुत हो गई रूठा रूठी
बातें हुई इकठ्ठा
तुम आओ तो खोलेंगे हम
हफ्ते भर का चिट्ठा !







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