रविवार, 30 अप्रैल 2017

रात

सुरमई पलकों में सपने,
बुन गई फिर रात,
चुपके से बातें हमारी
सुन गई फिर रात

बाग के हरएक बूटे पर
बिछी कुछ इस तरह,
शबनमी बूँदों में भीगी
नम हुई फिर रात...

रातरानी की महक से
फिर हवा बौरा गई,
इक गजल महकी हुई सी
लिख गई फिर रात...

सरसराहट पत्तियों की,
कह गई हौले से कुछ,
फिर हुई कदमों की आहट,
रुक गई फिर रात...

मेरी निंदिया को चुराकर,
साथ अपने ले गई,
कौन जाने दूर कितनी,
रह गई फिर रात...

4 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में सोमवार 18 नवंबर 2019 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. विरह की रात
    न बीतने की रात
    न बदली कोई बात
    प्रकृति के कारनामे
    हैं ज्यों के त्यों तमाम।
    सांसे हैं, हम हैं
    मगर कहाँ वो बात
    बिन तेरे खाये ये रात।

    सुंदर।

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