शनिवार, 1 अप्रैल 2017

ओ मेरे शिल्पकार !

ओ मेरे शिल्पकार,
पत्थरों को तराशनेवाले कलाकार,
आओ तुम्हें कुछ पत्थर दे दूँ,
गढ़ पाओ तो गढ़ लेना
एक नई सूरत नई मूरत,
कल्पना करो साकार !
ओ मेरे शिल्पकार !

हालातों को सँभालते-सँभालते,
पत्थर हो गईं संवेदनाएँ,
आँसुओं को रोकते-रोकते
पथरा गईं आँखें,
तराश लो इन पत्थरों को,
दो कोई आकार !
ओ मेरे शिल्पकार !

हाड़ माँस का यह शरीर भी,
पत्थर ही समझ लो,
बेजान साँसे, निष्प्राण धड़कनें,
चलती हैं,चलने दो !
उठाओ तुम छेनी हथौड़ा
डरो मत, करो प्रहार !
ओ मेरे शिल्पकार !

डरो मत, नहीं टपकेगा,
खून उन जख्मों से
हाँ, दर्द रिस सकता है !
और दर्द का तो नहीं होता,
कोई रंग - रूप - आकार !
ओ मेरे शिल्पकार !

तराशते तराशते जब,
पहुँच जाओ उस हिस्से तक,
जिसे दिल कहते हैं,
रुक जाना तब, मेरे शिल्पकार !
वह अभी नहीं हुआ पत्थर,
बसता है उसमें प्यार !
ओ मेरे शिल्पकार ! 

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