शुक्रवार, 5 जनवरी 2024

जाड़े का एक दिन

अभी अभी तो जगा नींद से
अभी अभी फिर सो गया दिन !

कितना छोटा हो गया दिन !

जाड़े का ये कैसा जादू
सूरज पर है इसका काबू
शाल - दुशाले, दुलई - कंबल
ओढ़ के मोटा हो गया दिन !

कितना छोटा हो गया दिन !

रात ठिठुरती काँप रही है
गुदड़ी से तन ढाँप रही है
दिन होगा तो धूप खिलेगी
एक भरोसा हो गया दिन !

कितना छोटा हो गया दिन !

सूखे - सूखे आज नहा लो
पानी में तुम हाथ ना डालो
अदरक वाली गर्म चाय के
संग समोसा हो गया दिन !

कितना छोटा हो गया दिन !

सूरज भाई, कहाँ चला रे
काम पड़े हैं कितने सारे !
दुपहरिया के ढलते ढलते
किस कोने में खो गया दिन !

कितना छोटा हो गया दिन !

10 टिप्‍पणियां:

  1. अति सुंदर वर्णन।

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  2. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" शनिवार 06 जनवरी 2024 को लिंक की जाएगी ....  http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !

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  3. वाह वाह! ठंडी के दिनों की सुन्दर चित्रण किया है आपने मीना जी.... मगर, आप तो मुम्बई में बैठे हो ये मज़ा लेनी है तो आ जाओ दिल्ली,☺️

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  4. सच्ची! पानी में हाथ डालने का मन नहीं हो रहा।
    सर्द मौसम का सुंदर वर्णन।

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  5. वाह ! सर्दियों के छोटे से दिन का अति सुहाना परिचय

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  6. जो भी हो मीना जी, आपने समोसा और चाय कर ज‍िक्र कर मन को वाचाल कर दि‍या...अब चला जाये इसी की तलाश में....राम राम

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  7. वाह! मीना जी ,क्या बात है ! बहुत खूबसूरत सृजन।

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  8. मीना जी कविता पढ़कर आनन्द आगया . कितनी सहजता से दिन के छोटेपन का शानदार चित्रण किया है ..दिन का जागना व सोना कितना सुन्दर बिम्ब ..वाह ...

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  9. वाह!!!
    शाल - दुशाले, दुलई - कंबल
    ओढ़ के मोटा हो गया दिन !
    क्या बात...
    लाजवाब👌👌

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