शुक्रवार, 4 अगस्त 2023

है ना जी ?

जितना ज्यादा मन रोएगा

उतना ओंठ हँसेगे जी

तुम अपने जीवन को जी लो

हम अपना जी लेंगे जी !


बच्चों जैसा पाया हमने

कुछ बूढ़ों का चाल चलन

दिखा खिलौना अधिक रंगीला

अब हम वो ही लेंगे जी !


दिखा रहे हैं जो हमदर्दी

वो हैं दर्द के सौदागर

तड़पोगे तुम , ये तो अपना

सौदा बेच चलेंगे जी !


उफनी नदिया, तो घर उजड़े

पर मानव की जिद देखो,

जब उतरेगी बाढ़, वहीं पर

फिर से लोग बसेंगे जी !


इक थैली के चट्टे बट्टे

छिपे हुए रुस्तम हैं सब

आरोपों प्रत्यारोपों के, 

जमकर तीर चलेंगे जी !









14 टिप्‍पणियां:

  1. जितना ज्यादा मन रोएगा

    उतना ओंठ हँसेगे जी

    तुम अपने जीवन को जी लो

    हम अपना जी लेंगे जी !
    वाह!! अपना अपना जीवन सबको जीना है,दुख के आंसू हंसते हंसते पीना है

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  2. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (०६-०८-२०२३) को 'क्यूँ परेशां है ये नज़र '(चर्चा अंक-४६७५ ) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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  3. क्या बात है दी,सरल सहज भावपूर्णमन से लिखी आपकी अभिव्यक्ति सदैव मन छू जाती है-----
    बाधाओं को जीत सको गर जीवन फिर मुस्कान है।
    मन आक्रोशित हाथ में पत्थर शीशों से बने मकान है
    भाँति भाँति के लोग यहाँ अलग-अलग पहचान है,
    साँसों का ही मोल नहीं बस मरना बेहद आसान है।
    ----
    बहुत समय बार आपकी रचना पढ़ने मिली,बहुत अच्छी लगी।
    सप्रेम प्रणाम दी।
    सादर।

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    उत्तर
    1. बहुत ही सुंदर काव्यात्मक अभिव्यक्ति, आपकी टिप्पणी भी हृदय को प्रसन्न कर देती है प्रिय श्वेता। बहुत सा स्नेह।

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  4. सहज ही मुख पर मुस्कान ला देने वाली पंक्तियाँ ..

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  5. उफनी नदिया, तो घर उजड़े

    पर मानव की जिद देखो,

    जब उतरेगी बाढ़, वहीं पर

    फिर से लोग बसेंगे जी !
    बहुत ही सटीक सार्थक एवं सारगर्भित...

    हमेशा की तरह बहुत ही लाजवाब सृजन।

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